ओपिनियन

बिल माफ हों, स्थगित नहीं

ऐसा लगता है कि राजस्थान की अफसरशाही ने यह ठान लिया है कि प्रदेश के उद्योग-धंधे हमेशा के लिए ठप हो जाएं। अर्थव्यवस्था चौपट हो जाए और हजारों-लाखों युवा बेरोजगारी की अंधी गलियों में भटकने को मजबूर हो जाएं।

Apr 04, 2020 / 11:28 am

भुवनेश जैन

– भुवनेश जैन

ऐसा लगता है कि राजस्थान की अफसरशाही ने यह ठान लिया है कि प्रदेश के उद्योग-धंधे हमेशा के लिए ठप हो जाएं। अर्थव्यवस्था चौपट हो जाए और हजारों-लाखों युवा बेरोजगारी की अंधी गलियों में भटकने को मजबूर हो जाएं। देश की चंद बिजली कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए प्रदेश के अफसर राजस्थान के दीर्घकालीन हितों पर चोट पहुंचाने से बाज नहीं आ रहे। एयरकंडीशन कमरों में बैठकर ये अंग्रेजीदां अफसर राज्य के राजनीतिक नेतृत्व को लगातार गुमराह करने में लगे हैं, ताकि उनकी चहेती बिजली उत्पादन कंपनियों के लाभ में एक पैसे की भी कमी नहीं आए, भले ही राजस्थान 50 वर्ष पीछे चले जाए। राजस्थान ही क्यों अफसरों की चली तो यही हालत कई प्रदेशों में होने वाली है।

आज कोरोना महामारी के चलते राजस्थान ही नहीं, पूरे देश में लॉकडाउन है। उद्योग-धंधों सहित हर गतिविधि बंद है। कारखानों में उत्पादन ठप हैं। श्रमिक बेरोजगार हो गए हैं। आश्चर्य है फिर भी ये अफसर इस बात पर जोर दे रहे हैं कि उद्योग भले ही एक पैसे का उत्पादन नहीं करें। भले ही बिजली का कोई उपयोग नहीं करें, लेकिन उनसे स्थाई चार्ज पूरा वसूला जाना चाहिए ताकि बिजली उत्पादन कंपनियों के मुनाफे में कोई कमी नहीं आए। राज्य सरकार को गुमराह कर बिजली बिल भुगतान दो माह स्थगित करने का झुनझुना पकड़ा दिया गया। इसे राज्य के उद्योग जगत की आंखों में धूल झोंकना ही कहा जाएगा। बिजली कंपनियां जो माल बेच ही नहीं रही, ऐसे संकट के समय भी उसकी कीमत वसूली हास्यास्पद ही नहीं, बदनीयती की द्योतक है। यह तो ऐसा हो गया कि कोई दुकानदार यह कहे कि आप सामान खरीदो या ना खरीदो-आप को पैसा चुकाना ही पड़ेगा, भले ही आप भूखे मर जाओ। दुकान तैयार करने पर मैंने पैसा लगाया है तो उसकी वसूली आप से ही होगी। होना तो यह चाहिए कि औद्योगिक उपभोक्ताओं के तीन माह के बिजली बिल पूरी तरह माफ कर दिए जाएं। लघु उद्योगों के लिए विशेष पैकेज दिया जाए। कम से कम ऐसा हो कि उद्योग-धंधों में इतनी सांस बाकी रहे कि कोरोना के कारण डूब रही उनकी सांसें अगले छह माह में पुन: खुलकर आने लगे और वे जल्दी से जल्दी अपने पैरों पर खड़े हो कर राजस्थान की अर्थव्यवस्था को वापस पटरी में लाने में सहायक हो सकें। पर हमारे यहां तो उद्योगों का दम घोंटने की तैयारी कर ली गई है।

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को ऐेसे समय अफसरों की राय की बजाए स्वविवेक से निर्णय करना चाहिए। एक तरफ वसूली की बजाए उद्योगों के प्रतिनिधियों से चर्चा करनी चाहिए। सब जानते हैं वसूली के स्थगन के कोई मायने नहीं हैं। दो माह बाद पेनल्टी और ब्याज का डंडा लेकर उद्योगों की रही-सही कमर भी तोड़ दी जाएगी। लगभग ऐसा ही मामला विभिन्न प्रकार के ऋणों की किस्तें स्थगित करने की केन्द्र सरकार की घोषणा का है। यह स्पष्ट होने लगा है कि पूरे ब्याज के साथ वसूली तो होनी ही है। आज नहीं तो दो महीने बाद। फिर राहत कैसी? जब आय ही नहीं होगी तो दो माह बाद रकम कैसे चुकाई जा सकेगी। अफसरों की सलाह पर जब निर्णय होते हैं तो उनमें संवेदनहीनता ही ज्यादा हावी रहती है। सरकारें लोक कल्याण के लिए होती हैं। हल ऐसे निकालने चाहिएं कि वे कोढ़ में खाज नहीं बने। संकट गुजरने पर सांस लेकर कम से कम अपने पैरों पर खड़े होने का तो इंतजार करना चाहिए।

चुनी हुई सरकारें जनता की प्रतिनिधि होती हैं। उन्हें समझना होगा कि उनकी जवाबदेही देश, राज्य और जनता के प्रति है। अफसरों का क्या, बहुत से अफसर सेवानिवृत्ति के बाद बड़ी कंपनियों में ऊंचे ओहदों पर बैठे ऐसे ही नजर नहीं आते। यदि वाकई हमें अपने राज्य की अर्थव्यवस्था की चिंता है तो सोचना तो अब यह होगा कि लॉकडाउन समाप्त होते ही ऐसे कौन से उद्योग धंधे हो सकते हैं जिन्हें बिना समय गंवाए तुरंत शुरू किया जा सकता है। शुरू करते समय सामाजिक दूरी और अन्य कौन सी सावधानियां रखनी होंगी जिससे इंसानी जिंदगी किसी तरह के जोखिम में नहीं आए। इसकी योजना भी अभी से बनानी होगी।

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