इन संस्थाओं की स्थापना करते समय सपने देखे गए थे ग्राम स्वराज के, विकास में स्थानीय जनता की भागीदारी के। आज हकीकत किसी से छुपी नहीं है। पंचायतीराज संस्थाएं अधिकांश मामलों में सरकार का मुंह ताकती रहती हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे विषयों को पंचायतीराज संस्थाओं के बैनर तले लाने का दावा किया जाता रहा है, पर इन्हें वापस सरकार के अधीन लाने के लिए कई बैकडोर उपाय अपना लिए गए। यही हाल शहरी निकायों का है। वहां भी सरकार ने सीमित विषय ही निकायों को सौंप रखे हैं। जिम्मेदारियों के बोझ से दबे ये निकाय आय के साधनों को तरस रहे हैं। कई बार राज्य सरकार की अन्य एजेंसियां भी इनके समानांतर ही इनके क्षेत्र में सक्रिय रहती हैं।
स्थापना के छह दशक बाद इन संस्थाओं को सशक्त करने के सिर्फ नारों से बात नहीं बनेगी। कोई एक-दो प्रकार की आय वसूली के अधिकार देने से भी इन निकायों की आर्थिक सूरत नहीं बदलेगी। इसके लिए सरकार को पहले स्वयं यह समीक्षा करनी होगी कि वास्तव में इन संस्थाओं को जो अधिकार दिए गए हैं वे भी प्रभावी तौर पर इन्हें सुपुर्द हुए हैं या नहीं। सरकार को जनता के फैसले का सम्मान कर उनके द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वास्तविक कमान सौंपनी होगी। उन्हें सरकार आवश्यक तकनीकी, प्रशासनिक मदद मुहैया करवाए, पर यह मदद के रूप में ही होनी चाहिए। संभव है कि शुरुआती दौर में इस प्रकार के सशक्तीकरण के उतने अच्छे परिणाम नहीं आ पाएं, क्योंकि अफसरशाही अपने अधिकारों में कटौती को आसानी से स्वीकार कर पाएगी, इसमें संदेह है। इसके बावजूद लोकतंत्र में जनतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती के गंभीर प्रयास जारी रहने चाहिए। (अ.सिं.)