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मार्गदर्शक

Published: Dec 28, 2015 11:32:00 pm

अटल तो सुनने-बोलने से लाचार हो गए लेकिन शेष चार बुजुर्ग मार्गदर्शकों की मिट्टी पलीद हो रही है। कोई सुनता ही नहीं

Opinion news

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वे दिन हवा हुए जब मार्गदर्शकों की पूछ होती थी। चन्द्रगुप्त मौर्य अपने राज्य में बड़े निर्णय मार्गदर्शक विष्णुगुप्त चाणक्य से पूछ कर किया करते थे। खेतड़ी नरेश अजीत सिंह अपने मार्गदर्शक स्वामी विवेकानंद से हमेशा सलाह मशविरा करते थे। अकबर के दरबार में नवरत्न थे। कहने को तो आज भी राजनीतिक दलों में मार्गदर्शक मंडल हैं पर उनकी स्थिति उन उल्लुओं के समूह की सी है जो बरबाद होते गुलिस्तां की डाल पर बैठा टुकुर-टुकुर ताकता रहता है।

कुछ बोलता है तो उसकी बात सुनी नहीं जाती। कुछ समझाता है तो उसकी उपेक्षा की जाती है। दलों की छोड़ो अपने घरों की बात करो। हजार में से एक घर होगा जहां अनुभवी बुजुर्गों की बात पर कान धरा जाता होगा। पोता अपनी मरजी से प्रेम विवाह कर लेता है और बेचारे दादा को उस दिन पता चलता है जब दुल्हन घर में रहने लगती है।

दो-चार दिन तो डोकरा यही समझता है कि कोई मेहमान होगी पर जब उसे दिन-रात अपने पोते के कमरे में ही घुसा देखता है तो डरते-डरते बेटे से पूछता है कि यह छोरी कौन है। तब भेद खुलता है कि यह तो उसकी पतोहू है। मार्गदर्शकों की बेकद्री समाज में भी कम नहीं हुई है। आज से बीस-पच्चीस बरस पहले तक हर जातीय समाज में कुछ संजीदा मार्गदर्शक होते थे। वे चाहे पैसे वाले न हों पर हमेशा न्यायसंगत बातें करते थे। लेकिन धीरे-धीरे पैसे वालों की तूती बोलने लगी और ईमान व न्याय की बातें करने वाले हाशिए में सिमट गए।

अगर कांग्रेस की बात करें तो वहां का मार्गदर्शक दशकों से नेहरू गांधी परिवार ही रहा है। वहां सलाहकार हो सकते हैं मार्गदर्शक नहीं। परंतु अपने आपको ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ कहने वाली भाजपा ने पांच बुजुर्गों का बाकायदा मार्गदर्शक मण्डल बनाया जिसमें वाजपेयी, आडवाणी, शांता कुमार, जोशी और यशवंत सिन्हा शामिल हैं। अटल तो सुनने-बोलने से लाचार हो गए लेकिन शेष मार्गदर्शकों की मिट्टी पलीद हो रही है।

कोई सुनता ही नहीं। पता नहीं हम भारतीय इस ‘हिप्पोके्रसी’ से कब मुक्त होंगे? कह क्यों नहीं देते कि भाजपा में वही होगा जो यानी नमो, जेटली व शाह की तिकड़ी चाहेगी। औरों के फटे में टांग क्या उलझाएं हम तो अपनी कहते हैं कि घर में हमारी स्थिति भी इस मार्गदर्शक मंडल से भी गई-गुजरी है। सब अपनी-अपनी ढपली पर अलग-अलग राग गाते हैं। हम तो दिखाने वाले घिसे हुए दांत हैं। इस मामले में हम और आडवाणी बराबर लगते हैं। किसी दिन उनके पास बैठकर अपना दर्द कहेंगे क्योंकि घायल की गति घायल ही ठीक से जान सकता है।
राही
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