scriptलिंगभेद की समाप्ति की ओर | Gulab Kothari Article 02 May 2023 towards the end of gender discrimina | Patrika News

लिंगभेद की समाप्ति की ओर

locationनई दिल्लीPublished: May 02, 2023 06:06:41 pm

Submitted by:

Gulab Kothari

Gulab Kothari Article : सामाजिक विद्रूपता पर केंद्रित पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख – लिंगभेद की समाप्ति की ओर

गुलाब कोठारी, पत्रिका समूह के प्रधान संपादक और चेयरमैन

गुलाब कोठारी, पत्रिका समूह के प्रधान संपादक और चेयरमैन

Gulab Kothari Article : समाज में यदि कोई बुराई अथवा गैर मानवीय गतिविधि परम्परा से अथवा किसी परिस्थितिवश चल रही है तो कानून का काम है उसे रोकने में सहायक होना। कम से कम इस पर वैधानिक मुहर तो नहीं लग सकती। लिव इन रिलेशन की परम्परा भी ऐसी ही है। बालविवाह के विरुद्ध क्यों कानून बनाया? हजारों साल से हो रहे थे। क्या जो विदेश में होता है, वही एक मात्र जीने का सही और वैधानिक तरीका है और हमारे हित में है? क्या उनकी कोई नीति मानवीय मूल्यों पर भारी नहीं पड़ती? हमारा केवल अतिशिक्षित समाज स्वच्छंदता की भाषा बोलता है, अंग्रेजी में बोल रहा है। क्योंकि उनकी भारतीय समाज व्यवस्था में जीने की क्षमता और मानसिक तैयारी नहीं है। समाज व्यवस्था में भी सार्वजनिक मर्यादा सर्वोपरि है। पश्चिम में यह व्यवस्था टूट चुकी है। कानून भी ‘एकल’ रूप (व्यक्तिवाचक) होने लगे हैं- इसी का नाम सामाजिक विखण्डन है।

हर देश मेंं, हर जाति-सम्प्रदाय में भी ऐसी ही कुछ परम्पराएं होती है जो उस समुदाय के बाहर मान्य नहीं होती। मुस्लिम समुदाय में बहु विवाह, तीन तलाक, हलाला जैसे विषय अन्य समुदायों में तो नहीं है। ईसाई समुदाय में – विकसित देशों में ‘सिंगल वुमन’ अन्यत्र नहीं है। कुछ जातियों में यौनाचार संबंधी अनेक परम्पराएं हैं- होंगी।

क्या एक -एक समुदाय की भीतरी परम्पराओं पर भारत जैसे देश में राष्ट्रीय कानून बनने चाहिएं? आज की सभ्यता में रेव पार्टियां और फार्म हाउस पार्टियां भी स्वच्छंद मानव को उसी ओर धकेल रही है। क्या विकास का अर्थ यौनाचार की स्वतंत्रता रह जाएगा? यह तो पशु-पक्षियों में भी नहीं होता, फिर केवल शिक्षित-स्वच्छंद मानव के लिए राष्ट्रीय स्तर के कानून क्यों बनने चाहिए?

कोई उन माता-पिता का दर्द जान लें जिनके बच्चे समलैंगिक यौनाचार में फंसे हैं। उन्हें (विशेषकर लड़कों को) तो लड़की के साथ रहने की इच्छा तक नहीं रह जाती। लड़कियों के लिए तो यह मार्ग पुरुष के प्रति ‘निराशा-द्वेष’ की अभिव्यक्ति ही है।

समय के साथ समस्या बढ़ती जा रही है। इस पर चर्चा होना पहली आवश्यकता है। स्त्री-पुरुष संबंधों में यह परम्परा किसी विशेष परिस्थिति और व्यवहार का ही परिणाम है। अस्सी के दशक (1980) में विश्व में एक बड़ा आंदोलन शुरू हुआ था। ‘वुमन्स लिब’ या महिला स्वातन्त्र्य। हमारे यहां आज इसको ‘महिला सशक्तीकरण’ कहा जाता है।


जो स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक थे उनको इस नारे ने एक-दूसरे के सामने खड़ा कर दिया। इसी के साथ परिवार और समाज व्यवस्था भी तार-तार होने लगी। स्त्री के प्रति पुरुषों में एक विशेष प्रकार का रोष दिखाई देने लगा। घर-परिवार के जीवन से शांति छू-मंतर हो चली।

कई मामलों में स्त्री अब पत्नी बनकर अपनी स्वतंत्रता खोने को तैयार नहीं मिलती और न ही विवाह का बड़ा आग्रह बचा। न संतान होने की चिंता। यहां से शुरू हुआ ‘लिव इन रिलेशन्स’। प्रकृति से जीतना संभव नहींं। इस व्यवस्था की मार लड़कियों पर अधिक पड़ी। उन्हें अनचाहे-अप्रत्यक्ष रूप में बहुविवाह की शरण लेनी पड़ी।

जो अगला दुष्परिणाम विकसित देशों में आया- वह और भी गंभीर था। इस सदी की शुरू में एक सोच और चल पड़ी लड़कों में- शादी नहीं करेंगे – घर नहीं बसाएंगे। नारी तो सृष्टि की पालक है किन्तु सृष्टि ही जब ठहर जाए तो? लड़कों ने दरवाजे तो बंद नहीं किए किन्तु स्त्री को जीवन का अंग बनाने को तैयार भी नहीं हुए।

‘खूब कमाओ, घर- सुविधा बसा लो, किसी भी लड़की को दो-चार साल के लिए रख लो- बदलते रहो’। कितनी लड़कियां पूर्ण स्वतंत्र रहकर भी इस व्यवस्था से सुखी होंगी? यहां से समलैंगिकता के साम्राज्य का विस्तार शुरू हो गया। चोरी-छुपे, होता तो पहले भी होगा, किन्तु स्त्री-पुरुष के बीच वैमनस्य का इतना विस्फोटक कारण नहीं बना था। पहले स्त्री के सम्मान में टूट नहीं हुई थी।

आज उम्र के आगे के पड़ावों पर, वृद्धावस्था में, उसके लिए कोई दरवाजा भी नहीं खुल रहा। उसके लिए एक डॉलर भी कोई पुरुष नहीं खर्च करना चाहता। वह तो भोग्य वस्तु ही खरीदना चाहता है। स्त्री उसके लिए ‘वस्तु’ हो गई। भले ही इसे ‘नारी सशक्तीकरण’ का उपहार कह लें।


‘समलैंगिकता’ का जीवन गति पकड़ेगा। वैसे भी तकनीक जिस तरह से व्यक्ति पर हावी होती जा रही है, उसके परिणाम सामने आने लगे हैं। प्रतिदिन दस-बारह घंटे कम्प्यूटर के सामने बैठने वाले तो यह भी भूलने लगे हैं कि वे लड़के हैं या लड़की। उस स्थिति में उनका शारीरिक विकास ठहर सा जा रहा है।

पुरुष अपने पौरुष के प्रति उतना जागरूक नहीं रहा, उधर स्त्रैण भाव और स्त्री देह भी पूर्णता को प्राप्त नहीं हो रही। समय पर शादी होना वैसे भी ढलान पर दौड़ रहा है।

पहली समस्या संतान न होने की, जो बढ़ती ही जा रही है। रोज नए आइवीएफ अस्पताल खुल रहे हैं। दूसरी समस्या प्रसव की। पूर्णकालिक प्रसव नहीं हो पाता। न तो गर्भाशय ही पूर्ण विकसित हो पाता, न ही संतान के लिए मां का दूध उपलब्ध हो पाता।

समय पूर्व ऑपरेशन से जन्मी संतान का भविष्य? स्त्री ने भी संतान तो दे दी किन्तु वह ‘मां’ बनने की पीड़ा से नहीं गुजर पाई। जीवन भर उस दर्द के रिश्ते का अभाव विश्व भर में देखा जा सकता है। कैसे एक फोन पर मां, बच्चे को होटल में बेचने लगी है- परोसने को।

मानव समाज की शक्ति संवेदनशीलता है। यह नए समाज से अनके रूपों में लुप्त होती जा रही है। आज तो चंद राशि के बदले जीवन छीन लिया जाने लगा है। पशु तो कभी प्रकृति की मर्यादा के बाहर नहीं जीने वाला। कलियुग आएगा- मानव के आसुरी आचरण से। निजी सुख के लिए किसी का भी सुख छीन लो। भले ही अपना सुख भी अगले ही दिन चला जाए।

आज विश्व के समक्ष एक ही बड़ी चुनौती है। वह है- मानव को मानव बनाए रखने की। इसके बिना विश्वशांति के सारे सम्मेलन धूल में मिल जाएंगे। भाग लेने वाला ‘मानव’ होना चाहिए। नए कानूनों की पहली शर्त ही मानवीय दृष्टिकोण होना चाहिए। उसी का विकास करने के लिए कानून बनने चाहिए। बुराई पर मुहर लगाने से तो हर देश ही ‘रावण की लंका’ बन जाएगा।

gk.jpg


पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी के अन्य लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें नीचे दिए लिंक्स पर –


संवाद-आत्मा से आत्मा का

लोकतंत्र: भय का अभाव

लूट की सीमा नहीं होती

बेचो और खा जाओ

लोकतंत्र किसके लिए?

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो