scriptकैसी अभिव्यक्ति: कैसी स्वतंत्रता | Gulab Kothari Article 05 May 2023 what an expression what a freedom | Patrika News

कैसी अभिव्यक्ति: कैसी स्वतंत्रता

locationनई दिल्लीPublished: May 05, 2023 04:14:41 pm

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Gulab Kothari

Gulab Kothari Article : मीडिया की दशा और दिशा पर केंद्रित पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी का यह विशेष लेख – कैसी अभिव्यक्ति: कैसी स्वतंत्रता

गुलाब कोठारी, पत्रिका समूह के प्रधान संपादक और चेयरमैन

गुलाब कोठारी, पत्रिका समूह के प्रधान संपादक और चेयरमैन

Gulab Kothari Article : समूचे विश्व ने दो दिन पहले ही ‘प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ मनाया। इस स्वतंत्रता के पीछे मीडिया की क्या भावना है, जनता की क्या भावना है और सत्ता पक्ष की मंशा कैसी दिखाई पड़ती है? इन तीनों दृष्टियों का किसी एक बिन्दु पर संगम होगा, तभी स्वतंत्रता का यह स्वरूप स्थायीभाव में दिखाई देगा। आज तो कहावत के अनुसार ही तीन-तेरह हो रहे हैं। यहां तक कि लोकतंत्र के तीनों पायों ने मिलकर मीडिया के रूप में चौथा पाया और सृजित कर दिया, जो संविधान में था ही नहीं और है भी नहीं। तब इस सरकारी पाये की स्वतंत्रता के अर्थ कैसे परिभाषित किए जा सकेंगे और कौन करेगा?

समय के साथ बदलाव कैसे आता है, प्रेस स्वतंत्रता की अवधारणा एक बड़ा प्रमाण है। जब यह कानून बना होगा, तब प्रेस का स्वरूप क्या था, इसकी भूमिका क्या थी, प्रकाशक का उद्देश्य क्या था? तब न टीवी था, न इंटरनेट, न सोशल मीडिया था और न ही डिजिटल माध्यम। आज प्रेस तो स्वयं बहुत पीछे छूटता जा रहा है। अब तो अस्तित्व की भी चुनौतियां दिखाई पडऩे लगीं हैं।

आर्टिफिशियल इण्टेलिजेंस का धुंआ उठने लगा है। लपटें उठने वाली हैं। ठप हो जाएगी सारी समाज व्यवस्था। व्यक्ति अकेला पड़ जाएगा। खो जाएगा तकनीक में। ऐसे में प्रेस को, अखबार को, याद रख पाना भी उसके लिए चुनौती होगी। कम से कम विकसित देशों में तो उखड़ सकता है। भारत अकेला भिन्न राष्ट्र है।

जब विश्व में रंगीन टीवी आया था, एक भूचाल दिखाई दिया था। मैगजीन्स का बाजार एकाएक सिमट गया था। अखबार भी हिले थे। शिक्षित व उन्नत अर्थव्यवस्था वाले पाश्चात्य देशों में पाठक की प्रतिक्रिया भिन्न होती है। वहां समाज व्यवस्था भी भिन्न है, व्यक्ति अकेला, स्वयं के लिए जीता है।

वहां तकनीक की पकड़ में आकर बाहर निकल पाना संभव नहीं है। तकनीक सम्पूर्ण देश को पिरोकर चलती है। आमजन भ्रष्ट नहीं है, नकद में लेन-देन नहीं होता। हमारे यहां तो चोर, भ्रष्टाचारी व्यवस्था के बाहर ही जीते हैं।


भारत में भी तकनीक उसी गति से आती है, जिस गति से पाश्चात्य देशों में आती है, किन्तु देश का छोटा सा हिस्सा इससे प्रभावित होता है। इसका मुंह भी पश्चिम की तरफ होता है। यह वर्ग भारत का प्रतिनिधि वर्ग नहीं होता। देश की बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बिताने को मजबूर है।

ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का अभाव है और बढ़ती आबादी के बीच अवैध आव्रजन (घुसपैठ) जैसी समस्याओं का ताण्डव देश को घेरे हुए हैं। शिक्षा या तो मिल ही नहीं पाती और मिलती है तो बेरोजगारी ही बढ़ाती है। दूसरी ओर अति शिक्षित और समृद्ध लोग देश छोडऩा चाहते हैं। ऐसे में प्रश्न स्वत: ही उठता है-प्रेस के भविष्य का।

भविष्य की कौन कह सकता है! किसी के हाथ में नहीं होता। फिर भी प्रेस तो रहेगा। पत्रिकाओं का सफाया तो यहां भी हो चुका है। जो चल रही हैं, वे योजनाओं के सहारे, मुफ्त जैसे ही चल रही हैं। अखबारों की कीमत विश्व में शायद सबसे कम हैं। हम विकसित देश बनने की ओर हैं, केवल सरकारें विकसित क्षेत्र में हैं।

यहां प्रेस का भविष्य एक दोराहे पर खड़ा है। लोकतंत्र के तीनों पाये मूकदर्शक हैं। बिना रोएं कोई आगे नहीं आता। सत्ता पक्ष किधर जा रहा है, चीन, रूस, ईरान जैसे देश इसके उदाहरणों से भरे पड़े हैं। वहां सरकार के विरुद्ध लिखकर जी पाना भी दूभर है। शेष राष्ट्रों में भी मीडिया को सत्तापक्ष अपने साथ बांधकर या खरीदकर अथवा डराकर रखना चाहता है। हमारा टीवी मीडिया तो कभी का सत्ता का मीडिया बन चुका है।

प्रेस भी करोड़ों कमाना चाहता है। जनता के विश्वास को योजनाओं में तोलने लगा है। स्वयं को चौथा पाया कहकर सरकारों के साथ खड़ा रहना ही श्रेष्ठ मानता है। उनकी लेखनी इस बात से प्रभावित होती है कि कौन सी सरकारें उनके हित पूरे करती है। उनको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां चाहिए? पाठक ऐसे मीडिया, पत्रकारिता के मायाजाल और देश के सांस्कृतिक विकास में उसकी भूमिका को अच्छी तरह समझता है। जैसे नेताओं के दल-बदल को समझता है।


जिस प्रेस को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना पड़ता है, वह दूसरा ही है। अलग ही मिट्टी का बना हुआ है। वही लोकतंत्र का, जनहित का, देश के विकास का भरोसेमंद वाहक है। सत्ता की आंखों में खटकने वाला प्रेस का यह भाग परिचय का मोहताज नहीं होता।

हर काल में वह जनता के साथ और सरकारों के विरुद्ध खड़ा होता है। इस मीडिया की शक्ति जनता में निहित रहती है, धन में नहीं रहती। पाठकों को याद होगा- किस प्रकार पत्रिका ने राजस्थान में काला कानून के खिलाफ लड़ाई लड़ी, मध्यप्रदेश में व्यापमं घोटाला और छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम को लेकर सत्ता के सामने डटा रहा।

हर बार जनता की जय हुई। हाल ही में मलयालम मनोरमा के मामले में सरकार ने दबाने का पूरा प्रयास किया। किस प्रकार आन्ध्रप्रदेश सरकार ईनाडू के समाचारों से खफा है या तेलंगाना सरकार सरकारी अखबार की आड़ में प्रेस पर किस तरह से आक्रामक है। हर बार मामला कोर्ट में ही जाता है। यह इस बात का प्रमाण है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कागजी सिद्धान्त बनता जा रहा है। सत्ता पक्ष को स्वतंत्रता का यह स्वरूप रास ही नहीं आता।

बस, यही भविष्य है भारत में भी प्रेस का, प्रेस की आजादी का। न्यायालय भी मूक दर्शक बनकर देखता है। आगे बढ़कर जिस प्रकार पहले स्वप्रेरणा से प्रसंज्ञान लेता था, अब कहां दिखाई देता है। हमारा अपना अनुभव है प्रेस कांउसिल का भी। राज्य सरकारें भी अभिव्यक्ति को बाधित करने के लिए कभी सरकारी विज्ञापन रोकती हैं तो कभी भुगतान रोकती हैं। हमको भी बार-बार न्यायालय की शरण लेनी पड़ती है।


एक ओर मीडिया का सरकारों के साथ संघर्ष का जीवन है, हर सरकार के लिए वह विपक्ष का रूप होता है, वहीं दूसरी ओर सरकारों से दोस्ती करके ‘पांचों अंगुलियां घी में’ रखी जा सकती हैं। तीनों पाये भी प्रसन्न और सन्तुष्ट! फिर संघर्ष की आग में पीढिय़ों को झौंकने की आवश्यकता क्या है?

हर दिन समृद्ध और सुरक्षित! ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ मिथक बनता जा रहा है। किन्तु भविष्य की सच्चाई भी यही है। जिसको जीवित रहना है, उसके लिए एक ही मार्ग है। ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ प्रेस के लिए अमृत घट है। व्यापारियों का काल आता-जाता रहेगा-शरीर की तरह योनियां बदलता रहेगा। आने वाले काल में व्यापारियों और एक पक्षीय प्रेस को अस्तित्व के लिए जूझना पड़ेगा।

तकनीक का लाभ विश्वसनीयता के आगे तुच्छ साबित होगा। लोकतंत्र का प्रहरी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सहारे बड़ा होता रहेगा, चौथा पाया चौथे युग (कलियुग) की पटरी पर चल रहा होगा। दायित्वबोध ही प्रेस की स्वतंत्रता है, वरना तो पार्थिव देह ही है।

Gulab Kothari Editor-in-Chief of Patrika Group


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