अभी तक केन्द्र सरकार के पास तथा भाजपा शासित राज्यों के पास जनता को दिखाने के लिए चेहरा ही नहीं है, बिहार चुनाव इसका प्रमाण है
गुलाब कोठारी
बिहार विधानसभा चुनावों के परिणाम किसी भी दृष्टि से अप्रत्याशित नहीं हैं। जिस किसी ने भी दिल्ली विधानसभा के चुनावों को देखा है, उससे भी एक कदम आगे निकले यह परिणाम। कहने को तो महागठबंधन जीता है, किन्तु सूक्ष्म रूप में तो यह भारतीयता की ही जीत हुई है। यह नीतीश की ही जीत मानी जाएगी। जनता को बड़ा भरोसा नीतीश के नेतृत्व पर ही रहा। दो कट्टर शत्रुओं (नीतीश-लालू) का एक हो जाना भी लोगों को अश्वस्त कर गया कि भविष्य भाजपा के साथ सुरक्षित नहीं है। इसी बीच भाजपा द्वारा ओबीसी को जोड़ लेना हवा के रुख को मोड़ गया। नरेन्द्र मोदी ने डीएनए को लेकर जो चोट बिहार की अस्मत पर की, वह तो घातक ही साबित हुई। भाजपा-जदयू के अलग होने का जिक्र करते हुए मोदी ने कहा कि ‘मुझे उस वक्त चोट पहुंची जब उन्होंने समर्थन वापस लिया। लेकिन जब उन्होंने यही व्यवहार एक महादलित जीतन राम मांझी के साथ किया, उनकी सारी पूंजी छीन ली, तब मुझे लगा कि उनके डीएनए में ही कोई गड़बड़ है। उसको भी समझना पड़ेगा।’ डीएनए का यह मुद्दा एनडीए को ले डूबा।
दोनों पक्षों के चुनाव अभियान, भाषा, कटाक्ष तथा आरोप-प्रत्यारोप निम्न स्तर के थे। न तो मुख्यमंत्री के मुख को सुशोभित कर रहे थे, न ही प्रधानमंत्री के वक्तव्यों को। दोनों ने जातिवाद, दलगत-छिछली राजनीति में कोई कोर-कसर भी नहीं छोड़ी। धन की होली खेलने में किसने सोचा कि यह जनता का धन है। फिर भी भारतीय संस्कारों ने सिद्ध कर दिया कि सांस्कृतिक आक्रमण सफ ल नहीं होंगे। लोगों ने टिकट बंटवारे में जाति-पांति के भेदभाव को भी देखा और परिणामों में नकार भी दिया। ईवीएम पर बटन दबाते समय उनका हाथ ठिठक गया। जब तक यह हाथ ठिठकता रहेगा, देश में लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा।
चुनाव में देशहित में दलों का एकीकरण भी इस बार ऐतिहासिक घटना बन गया। सोनिया गांधी बधाई की पात्र हैं जिन्होंने बड़े लाभ के लिए अपने अहंकार को छोड़ दिया। हालांकि वो इस बात से त्रस्त रही हैं कि, केन्द्र सरकार ने कांग्रेस को लोकसभा में प्रमुख विपक्षी दल का दर्जा देने से मना कर दिया। उन्होंने छोटे दलों के साथ मिलकर मतों के बिखराव को रोकने में मदद की। इस कारण पाकिस्तान के मंसूबे भी पूरे नहीं हो सके। वह इस दृष्टि से समाज के टुकड़े कराने में कामयाब नहीं हुआ। केन्द्रीय मंत्रियों तथा स्वयं प्रधानमंत्री ने जिस भाषा में लालू-नीतीश पर आरोप लगाए उनका भी उल्टा प्रभाव पड़ा।
सुषमा-वसुंधरा-स्मृति के मुद्दे चर्चा में आ गए, जिनको केन्द्र दबाने के प्रयास करता रहा है। इसी संदर्भ में सत्ता का अहंकार और केन्द्रीकरण, एनडीए का टिकट में राजपूतों एवं सवर्णों को अनुपात से कई गुना अधिक सीटों का आवंटन बड़े कारण रहे। साहित्यकारों की सम्मान वापसी और अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के माहौल ने भी बिहार के मतदाताओं को प्रभावित किया। प्रधानमंत्री का चुनाव पूर्व और प्रचार के लिए बिहार दौरा, वाराणसी सहित उत्तर प्रदेश के जिला निकाय चुनाव में भाजपा का पत्ता साफ होना और इसके विपरीत नीतीश की दाग रहित छवि चुनाव को प्रभावित कर गई
सबसे महत्वपूर्ण बात थी भाजपा एवं संघ की भूमिका। क्या चुनाव मोदी हारे या भाजपा? मोदी हारे तो घर चले जाएंगे। इसमें उनका क्या नुकसान हो जाएगा? कुछ भी नहीं। भाजपा हारी तो नेताओं का क्या नुकसान हो जाएगा? कुछ भी नहीं। इनका दांव पर क्या है, जो लुट जाएगा। भाजपा संघ की एक राजनीतिक संस्था है। अपने आप में कुछ नहीं है। मोदी सरकार सत्ता में आई संघ के घोषणा-पत्र को लेकर।
वे मुद्दे भारतीय जनता के थे तभी तो मोदी का जनता ने चयन किया था। क्या जनता ने नहीं सुना कि केन्द्र उन सब वादों से पलट गया है? क्या भाजपा ने संघ प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण विरोधी शंखनाद नहीं सुना और सम्पूर्ण शक्ति लगाकर उसका विरोध नहीं किया? यदि भाजपा चाहती तो इसकी समाज के सामने ठीक ढंग से व्याख्या कर सकती थी। लेकिन वह इसमें भी चूक गई। भाजपा क्या संघ का घर छोड़ सकती है? क्या भाजपा को सार्वजनिक रूप से ऐसा विरोध प्रकट करना चाहिए था? भाजपा को एक संस्कारवान संगठन मानते हैं, जबकि उसके नेताओं ने भाषा की गिरावट और अहंकार प्रदर्शन की मर्यादाओं का भी ध्यान नहीं रखा। भाजपा को इन सबकी कीमत चुकानी होगी।
संघ को अपने अधिकारों का प्रयोग करके भाजपा का पुनर्गठन करना चाहिए आपराधिक, अमर्यादित सदस्यों से भाजपा को मुक्त करवाना चाहिए। जो बड़े निर्णय, नेताओं के विरुद्ध लम्बित पड़े हैं, उन पर शीघ्र कार्रवाई करने का दबाव बनाना तो पहली आवश्यकता है। जहां-जहां भी केन्द्र सरकार ने अपनी हठधर्मिता और सत्ता के अहंकार में निर्णय किए हैं, उन पर पुनर्विचार भी करना चाहिए। नई पीढ़ी वर्तमान भाजपा को स्वीकार नहीं करेगी। वह शिवसेना, बजरंग दल और संतों का चोला ओढऩे वालों की उच्छृंखलता को सहन करने वाली नहीं है। भाजपा एवं सहयोगी दलों में सत्ता का अहंकार कहां तक पहुंच गया है उसका उदाहरण है, राजस्थान के शिवसेना अध्यक्ष का अलोकतांत्रिक वक्तव्य, जिसमें उन्होंने पाकिस्तानी जायरीनों को अजमेर में ख्वाजा साहब की जियारत नहीं करने देने की बात कही।
मानो अजमेर इनकी मिल्कियत है और विदेश विभाग द्वारा जारी वीजा इनके आगे कोई महत्व ही नहीं रखता। भाजपा ने क्या कार्रवाई की? महाराष्ट्र में भी ये लोग मराठा और मराठी को लेकर तो आए दिन सत्ता का नाच करते आए हैं। इस सबका उत्तर तो आने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में ही सामने आ जाएगा। अभी तक केन्द्र सरकार के पास तथा भाजपा शासित राज्यों के पास जनता को दिखाने के लिए चेहरा ही नहीं है। बिहार चुनाव इसका प्रमाण है। भाजपा के लिए भी आगे एक ही विकल्प है- करो या मरो।