यूक्रेन में भारतीयों के हालात तो तरस खाने जैसे हैं। 'पराधीन सपनेहुं सुख नाहि।' यूक्रेन के युद्ध का देश पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह तो समय बताएगा। कोरोना के दौर ने कैसे जनता को लूटा है-सबने भोगा है। आगे भी तैयार रहना चाहिए।
पिछले कुछ वर्षों से सभी सरकारें सस्ती लोकप्रियता के लिए तथा अपनी कर्महीनता व जनता की नाराजगी को ढंकने के लिए जनता में मुफ्तखोरी का चस्का लगा रही है। यह अभ्यास अब चरम छूने लगा है। जनता के धन से ही जनता को नकारा बनाया जा रहा है। एक नए कर्महीन और बेरोजगार भारत का निर्माण हो रहा है। शिक्षा व्यवस्था तो बच्चों को बीस साल पढ़ाने में माता-पिता की सम्पूर्ण कमाई चूस रही है। बच्चे बेरोजगार और मां-बाप कर्जदार! अंग्रेज खा रहे हैं।
अवैध हथियार और मादक पदार्थ आज अनाज से ज्यादा उपलब्ध हैं। पूरी की पूरी पीढ़ी पुरुषार्थहीन बनती जा रही है। इस कमाई से भ्रष्टाचारियों के चर्बी चढ़ रही है। अपराधों का ग्राफ देख लें। क्या नहीं हो रहा। ऐसा लगता है कि अपराधों का होना ही पुलिस की 'प्राणवायु' बन गई। ये भी हमारे ही घरों के बच्चे हैं।
आज ये बातें इसलिए दोहरा रहा हूं कि बिना रोए मां भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती। हमारी चुप्पी से देश में गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल)जीने वाले परिवारों की संख्या घटने के स्थान पर बढ़ रही है। हमें यह चिन्तन तो करना ही चाहिए कि आज मेरा ही यह हाल है तो मेरे बच्चों का क्या होगा? सरकारें न बजट छोड़ेंगी, न जमीनें, न रोजगार।
क्या लोकतंत्र में गुलामी का बोझ उठाना हमारी अनिवार्यता है? क्या हम इतने असमर्थ हैं कि स्वयं अपना भला-बुरा नहीं सोच सकते? खुद को अपना भाग्य विधाता नहीं बना सकते? क्या अर्थ है फिर 'भारत भाग्य विधाता' का? क्या हम भी दुष्टों का नाश करने के लिए कल्कि अवतार की प्रतीक्षा करते रहेंगे? क्या अपराधी का साथ देना, मौन रहकर स्वीकृति देना अपराध नहीं है! उठना तो होगा, धर्म की रक्षार्थ! (हम कृष्ण अंश हैं और वे सबके हृदय में बैठे हैं।)
हर व्यक्ति को संकल्प करना है कि मैं अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक भी रहूंगा और अधिकारों के लिए संघर्ष भी करूंगा। पत्रिका साथ-साथ चलेगा। सरकारों के कामकाज को लेकर अभियान चलाएंगे। जिस प्रकार अमृतं जलम् जैसे अभियानों में बढ़ चढ़कर भाग लिया करते हैं, वैसे ही भ्रष्टाचारियों पर भी दबाव बनाना पड़ेगा। उनके विरुद्ध कार्रवाई के लिए सरकार को मजबूर करना पड़ेगा। विपक्ष की प्रतीक्षा नहीं करनी है। उनकी अपनी राजनीति है।
जिस अपराधी को पुलिस पकडऩा नहीं चाहती, कोर्ट के समन नहीं पहुंचाती, हमें इस कार्य में हाथ डालना चाहिए। पानी-बिजली-सड़क की व्यवस्था के लिए हर मोहल्ले के संगठन बनें, शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं में आवश्यक दखल रखें और कमी मिलने पर संबंधित को शिकायत कर संचालन में भी सुधार कराएं। परीक्षाएं और भर्ती जैसे फर्जीवाड़े और सरकारी सीनाजोरी, अपराधियों को हर बार बचाने के प्रयासों को झटकने की आवश्यकता है।
लोकतंत्र या 'तंत्रलोक'
ये तो उदाहरण मात्र है। हर शाख पर उल्लू बैठा है और उसकी पीठ पर लक्ष्मी विराजमान है। हमें सरस्वती को जगाना है तभी हमारा विवेक भी साथ रहेगा। लक्ष्मी के पुजारी मानव मात्र का भला नहीं कर सकते। वहां धन के आगे सब छोटे हैं। लक्ष्मी के भरोसे विश्व गुरु नहीं बन सकते। हमें ज्ञान के बल पर अपनी स्थिति का आकलन करने की जरूरत है। नीम के कीड़े क्या जाने शक्कर का स्वाद!उठो! जागो! जहां जरूरत लगे, पत्रिका को साथ लें। मिलकर नया भविष्य निर्मित करें। सोते रहना, मौन रहना भी आपका अधिकार है। जैसा करोगे, वैसा भरोगे। आज नई पीढ़ी अकेले जीने को उत्सुक है। समाज से दूर होती जा रही है। मोबाइल के भरोसे। तब समाज एवं देश किसके भरोसे चलेगा? जो हमारे नहीं हो सकते, जो हमें बेहोश देखना चाहते हैं, बेरोजगार रखकर सदा धन समेटना चाहते हैं उनके भरोसे या पत्रिका जैसे विश्वासपात्र के साथ?