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शरीर ही ब्रह्माण्ड : भूमिका पंच महाभूतों की

locationनई दिल्लीPublished: May 22, 2021 09:11:02 am

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Gulab Kothari

पृथ्वी केन्द्र मूलाधार कहलाता है। इस चक्र में विकृति आने पर कमर-घुटनों में दर्द, मोटापा, व्यसन, मानसिक गिरावट जैसे भाव/रोग प्रकट होते हैं। वर्तमान में पृथ्वी तत्त्व से सम्पर्क टूटता जा रहा है।
निर्माण और विध्वंस एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जन्म ही मृत्यु का आरंभ है। कृष्ण भी कह रहे है कि जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म भी अवश्य ही होता है।
 

शरीर ही ब्रह्माण्ड : भूमिका पंच महाभूतों की

शरीर ही ब्रह्माण्ड : भूमिका पंच महाभूतों की

गुलाब कोठारी, (प्रधान संपादक, पत्रिका समूह)

मारी सृष्टि के तीन विभाग हैं—अधिदैव, अधिभूत और अध्यात्म। अधिदैव द्युलोक है, अधिभूत में पृथ्वी सहित पंच महाभूत रहते हैं। अध्यात्म हमारा शरीर-पंचकोश युक्त है। तत्त्व दृष्टि से तो तीनों ही पंच महाभूतों से निर्मित हैं तथा महाभूतों के द्वारा ही संचालित होते हैं। अन्त में पंचतत्त्वों में ही विलीन हो जाते हैंं। जिस प्रकार वर्षा ऋतु में बच्चे मिट्टी के मकान बनाते हैं, मिटाते रहते हैं, उसी रूप में सृष्टि भी चलती है। निर्माण और विध्वंस एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जन्म ही मृत्यु का आरंभ है। कृष्ण भी कह रहे है कि जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म भी अवश्य ही होता है। इसीलिए इस बिना उपाय वाले विषय में तुम शोक करने योग्य नहीं हो।

जातस्य हि धु्रवो मृत्युर्धुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
(गीता 2.27)

वैसे तो पंच महाभूत भी सृष्टि प्रक्रिया में ही आविर्भूत होते हैं। सर्वप्रथम आकाश तत्त्व नाद से बनता है। नाद, आकाश की तन्मात्रा कहलाती है। आकाश से वायु बनता है। आकाश-भूत है, कान उसका अध्यात्म है, शब्द उसका विषय (अधिभूत), दिशाएं अधिदैव हैं। वायु दूसरा भूत है। त्वचा उसका अध्यात्म, स्पर्श उसका अधिभूत और विद्युत अधिदैव है। तीसरा भूत अग्नि अथवा तेज है। नेत्र उसका अध्यात्म, रूप उसका विषय (अधिभूत) और सूर्य उसका अधिदैव है। चौथे भूत जल का अध्यात्म रसना, रस/स्वाद अधिभूत तथा चन्द्रमा अधिदैव है। पृथ्वी पांचवा भूत है। नासिका उसका अध्यात्म, गन्ध अधिभूत, वायु अधिदैव है।

इसी प्रकार कर्मेन्द्रियां भी पंच महाभूत से जुड़कर कार्य करती हैं। दोनों पैर अध्यात्म है, गन्तव्य या मंजिल अधिभूत तथा विष्णु अधिदैव है। निम्न गति वाला अपान एवं गुदा अध्यात्म, मल त्याग अधिभूत तथा मित्र (आदित्य) अधिदैव है। उपस्थ (प्रजनन संस्थान) अध्यात्म, शुक्र अधिभूत तथा प्रजापति अधिदैव कहलाते हैं। दोनों हाथ अध्यात्म, कर्म अधिभूत, इन्द्र अधिदैव हैं। वाणी अध्यात्म, वक्तव्य अधिभूत तथा अग्नि अधिदैव है। मन अध्यात्म है, संकल्प उसका अधिभूत तथा चन्द्रमा अधिदैव कहलाता है। संसार का जनक अहंकार अध्यात्म, अभिमान अधिभूत तथा रुद्र उसका अधिदैव है। पांचों इन्द्रियों तथा मन को जानने वाली बुद्धि अध्यात्म है, मन्तव्य उसका अधिभूत है, ब्रह्मा अधिदैव है।

इसी प्रकार हमारा सूक्ष्म शरीर-ऊर्जा या प्राण शरीर भी पंच महाभूतों द्वारा संचालित होता है। हमारे शरीर में सात बड़े ऊर्जा केन्द्र हैं। शुरू के पांच केन्द्र या चक्र पंच महाभूतों के प्रतिष्ठान हैं। सबसे नीचे रीढ़ की हड्डी के निचले स्थान पर है हमारा मूलाधार चक्र। इसका सम्बन्ध पृथ्वी भूत से है। इसके ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र जल-केन्द्र है। नाभि सूर्य से सम्बद्ध यह स्थान मणिपूर चक्र का है, जो तेज (अग्नि) का केन्द्र है। हृदय स्थल वायु केन्द्र तथा कण्ठ आकाश रूप क्रमश: अनाहत एवं विशुद्धि चक्र हैं। भ्रूमध्य में आज्ञाकेन्द्र का सम्बन्ध हमारे मस्तिष्क के कार्यकलापों, स्नायु तंत्र से है। अवचेतन मन से सम्पर्क साधने का यह केन्द्र है। शिरोगुहा में सहस्रार का स्थान है। यह अलौकिक धरातल से जुड़ा रहता है। आत्मा का धरातल है। सूक्ष्म शरीर का नियन्ता है।

इनमें से प्रत्येक केन्द्र के अधीन तीन-तीन युग्म अवयव अधिभूत रूप में रहते हैं। जैसे मन के अधीन पांचों ज्ञानेन्द्रियां कार्य करती हैं, उसी तरह ऊर्जा केन्द्र भी शरीर को बाहर-भीतर से जोड़कर सभी अवयवों को तंत्र रूप से स्थापित रखते हैं। प्रत्येक केन्द्र सप्त प्राणों के समूह में कार्य करता है। इस तन्त्र के लिए शरीर में चार केन्द्र अथवा गुहा तंत्र हैं। शिरोगुहा—दो कान, दो आंखें, दो नाक, एक मुख। इस गुहा की प्रतिष्ठा ब्रह्म रंध्र है। यह आकाश के ऊपर की प्रतिष्ठा है। उरो गुहा—दो हाथ, दो फेफड़े, दो स्तन, हृदय। यह कण्ठ से संचालित होता है, जो आकाश तत्त्व का केन्द्र है। उदर गुहा—यकृत-प्लीहा, आमाशय-पक्वाशय, दो वृक्क, सातवां नाभि केन्द्र। यह क्षेत्र हृदय (वायु) से नियंत्रित है। वस्ति गुहा—दो पैर, दो अण्डकोष, मूत्र-वीर्य विसर्जन छिद्र, एक गुदा। यह क्षेत्र उत्सर्ग/विसर्जन/ प्रजनन का है।

समझने की बात यह है कि वस्ति गुहा जल प्रधान क्षेत्र है। जल का निर्माण अग्नि से होता है। अग्नि तंत्र की कमी से या विसंगति से जल तंत्र में रोग होता है। इसका उपचार अग्नि तंत्र में ही हो सकता है। जल-तंत्र में किया गया किसी भी प्रकार का उपचार पृथ्वी तत्त्व में विकार खड़े कर देगा। इसी प्रकार उदर गुहा अग्नि प्रधान क्षेत्र है। वैश्वानर अग्नि का क्षेत्र है। अग्नि का निर्माण वायु से होता है। अत: हृदय, वायु केन्द्र ही इस क्षेत्र का अधिष्ठाता है। वायुदोष के कारण ही अग्नि क्षेत्र अव्यवस्थित होता है। इसी प्रकार शिरो गुहा, उरो गुहा के कार्यों को भी समझना चाहिए। एक महाभूत में आया विकार आगे के सभी केन्द्रों को प्रभावित करता है। इसका कारण यही है कि एक महाभूत अगले महाभूत का निर्माण करके उसी में प्रविष्ट हो जाता है। आकाश अकेला तत्त्व है। वायु में आकाश भी सम्मिलित है। अग्नि में वायु-आकाश दोनों युक्त हैं। जल में आकाश-वायु-अग्नि तीनों समाहित हैं। पृथ्वी पांचों तत्त्वों का समूह है। अत: किसी भी केन्द्र की विकृति पृथ्वी तक जाती ही है। शरीर में ही अभिव्यक्त होती है।

पृथ्वी केन्द्र मूलाधार कहलाता है। इस चक्र में विकृति आने पर कमर-घुटनों में दर्द, मोटापा, व्यसन, मानसिक गिरावट जैसे भाव/रोग प्रकट होते हैं। वर्तमान में पृथ्वी तत्त्व से सम्पर्क टूटता जा रहा है। पैदल चलना कम हो रहा है। जूते के नीचे रबर सोल भी पृथ्वी से सम्पर्क काट देता है। पृथ्वी पर शयन उत्तम है। स्वाधिष्ठान जल केन्द्र होने से इसके अधीन सभी केन्द्र जल तत्त्व प्रधान हैं। जल का स्वामी चन्द्रमा है, जो मन का भी संचालन करता है। मन के भावों का सर्वाधिक प्रभाव इस केन्द्र पर पड़ता है। रसना (स्वाद) ही इस चंचलता की अभिव्यक्ति है। रस और नीरस दोनों मन के ही भाव हैं। यही ‘स्व’ के अधिष्ठान केसूचक हैं। अत: आत्मभाव का केन्द्र है।

मणिपूर (नाभि) शरीर का मुख्य केन्द्र है। गर्भकाल में यही जीवन पोषण का मार्ग है। तेजस् केन्द्र होने से इसका सम्बन्ध सूर्य और प्रकाश से है। अत: यह शक्ति केन्द्र है। पाचन क्रिया से जुड़े अवयव इसके क्षेत्र में आते हैं। तेज की अभिव्यक्ति नेत्रों से होती है। स्थूल अन्न, मनोभावों का पाचन यहां होता है। वायु विकार के कारण अथवा ध्वनि की अशुद्ध तरंगों के वातावरण के कारण इस क्षेत्र में विकार आते हैं। इच्छा शक्ति डांवाडोल होने लगती है। नकारात्मक भाव उठते हैं। नीचे के दोनों केन्द्र भी प्रभावित हो जाते हैं। वायु का केन्द्र हृदय है। वायु आकाश पर ही टिका है। सृष्टि की यही गति-स्थिति है। अत: वायु रोगों का प्रभाव सर्वाधिक होता है। इससे नीचे के केन्द्रों में भी विकृति आ जाती है। प्राणायाम ही इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वायु रोगों की चिकित्सा कण्ठ में निहित है। हृदय केन्द्र शरीर में दोनों ओर समान रूप से प्रभाव दिखाता है। ऊध्र्व गति/ अधोगति की दिशा तय करता है। वायु का विषय स्पर्श है। आकाश की तन्मात्रा नाद है। अत: श्रोत्र (कान) इसका अध्यात्म कहा है। कान-नाक-गला-मुंह इसके क्षेत्र हैं।

आकाश की विकृति से कान, वायु विकृति से त्वचा, अग्नि से नेत्र, जल से रसना तथा पृथ्वी से गंध (नाक) क्षेत्रों के रोग होते हैं। मूल में सभी ज्ञानेन्द्रियां मन से ही संचालित होती है। अत: मन की चंचलता ही विभिन्न इन्द्रियों के विषयों से जुड़कर विकृति अथवा सुकृति का कारण बनता है। अर्जुन भी कह रहा है कि हे कृष्ण! यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाव वाला है, उसको मैं वायु के समान वश में करने में अति दुष्कर मानता हूं।

चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ (गीता 6.34)

मन का नियंत्रण वायु के नियंत्रण के समान कहा गया है। इसीलिए किसी एक इन्द्रिय की चंचलता भी जीवन पर भारी पड़ सकती है। बड़े-बड़े महत्वशाली प्राणी भी केवल एक इन्द्रिय के बिगाड़ से मर जाते हैं। पतंगा, हाथी, हिरन, भ्रमर, मछली मात्र एक ही विषय की आसक्ति के कारण मर जाते हैं, तो पांच विषयों का उपभोग करने वाला प्रमादी मनुष्य क्यों न मरे।

”कुरंग मातंग पतंग मृमाना हता
पंचभिरेवपि।
एक: प्रमादी स कथं हन्यते य: सेवते पंचभिरेवपञ्च ॥”

कृष्ण कहते हैं कि इन्द्रियों को स्वच्छन्द छोड़ देने से वे मन और बुद्धि को भी बिगाड़ देती हैं। इन्द्रिय संयम से मन सबल हो जाता है। धीरे-धीरे विषयों से हट जाता है। कृष्ण अर्जुन से इसीलिए कह रहे हैं कि जिसकी इन्द्रियां वश में होती है उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ (गीता 2.68)

जीवन की निर्माण सामग्री पंच महाभूत हैं। माया कारीगर है। प्रकृति नक्शा बनाती है। ब्रह्म तो रहकर चला जाता है। उसके रहने तक आवास शुद्ध रहे, सुदृढ़ रहे, यह आवश्यक है। इसका एक ही उपाय है कि आकाश तत्व की निर्मलता बनी रही। इसका माध्यम है नाद-ध्वनि। यही भक्तिमार्ग की भूमिका है।

हमारा सूक्ष्म शरीर-ऊर्जा या प्राण शरीर भी पंच महाभूतों द्वारा संचालित होता है। हमारे शरीर में सात बड़े ऊर्जा केन्द्र हैं। शुरू के पांच केन्द्र या चक्र पंच महाभूतों के प्रतिष्ठान हैं। सबसे नीचे रीढ़ की हड्डी के निचले स्थान पर है हमारा मूलाधार चक्र।
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