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शरीर ही ब्रह्माण्ड : ऋणमुक्ति का आधार दाम्पत्य

locationनई दिल्लीPublished: Jun 05, 2021 07:56:10 am

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Gulab Kothari

– सृष्टि के हर पिण्ड के केन्द्र में ब्रह्म है और परिधि पर माया। प्रत्येक प्राणी, पेड़, पर्वत या कीट-पतंगे, सभी का एक ही सिद्धान्त है। सृष्टि का प्रत्येक पक्ष अद्र्ध नारीश्वर है।

शरीर ही ब्रह्माण्ड : ऋणमुक्ति का आधार दाम्पत्य

शरीर ही ब्रह्माण्ड : ऋणमुक्ति का आधार दाम्पत्य

गुलाब कोठारी, (प्रधान संपादक, पत्रिका समूह)

भारतीय संस्कृति में सम्पूर्ण जीवनकाल को पुरुषार्थ चतुष्ट्य के आधार पर ही व्यवस्थित कर जीने का संदेश दिया गया है ताकि मनुष्य ऋणों के बन्धन से मुक्त हो सके। ऋषि, पितृ एवं देव ऋण-इन तीन ऋणों को चुकाने पर ही मोक्ष संभव है। मनुष्य आधिदैविक मण्डल के ऋषि-पितर-देव प्राणों के अंशों को लेकर ही उत्पन्न होता है। जब तक वे इन प्राकृतिक तत्त्वों को अपना उपादान नहीं बना लेते तब तक उसकी उत्पत्ति असम्भव है। पैदा होने के लिए इन तत्त्वों का ऋण लेना आवश्यक हो जाता है। स्वयंभू से ऋषिप्राण लेकर मनुष्य ऋषिऋण से ऋणी बनता है। सूर्य से देवप्राण लेकर देवऋण से ऋणी होता है। पिता से शुक्र द्वारा परमेष्ठी के सौम्य प्राणमय पितृप्राण लेकर पितृऋण से ऋणी होता है।

असत् प्राण को ही ऋषि कहा जाता है। वे ही सृष्टि के मूल प्रवर्तक है। गोत्र सृष्टि का इसी ऋषि प्राण से संबंध है। इस विभूति का प्रधान कर्म ज्ञान का प्रसार है। हमारे अध्यात्म में इस ईश्वरीय संस्था का जो भाग आता है वही ऋषि ऋण कहा जाता है। स्वाध्याय, ज्ञान का दान ही ऋषि ऋण का शोधक है। बिना अध्ययन-अध्यापन के हमारा आत्मा कभी ऋषि ऋण से मुक्त नहीं हो सकता। ऋषि प्राणों के संयोग से उत्पन्न होने वाला पितृ प्राण मैथुनी सृष्टि का प्रथम आरंभक है। संतोनोत्पत्ति के द्वारा पितृ ऋण से छूट पाना संभव है क्योंकि पुरुष शरीर स्थित शुक्र, पितृ संस्था का स्थायी भाव है। बीजी स्वरूप है जिसमें सात पीढिय़ों के अंश रहते हैं। यही वृषा तत्त्व है।

परमेष्ठी के अंगिरा और भृगु (अग्नि और सोम) के द्वारा उत्पन्न ज्योतिर्मय प्राण को देव कहा जाता है। ये संख्या में तैंतीस कहे जाते हैं जो सूर्य से पृथ्वी लोक तक विद्यमान रहते हैं। ये देव प्राण हमारे अध्यात्म में देव ऋण रूप में आते है। ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ ही इस देव ऋण से उऋण कराने में सहायक है। इस विषय में श्रुति प्रमाण है – जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवान् जायते ब्रह्मचर्येण-ऋषिभ्य:, यज्ञेन-देवेभ्य:, प्रजया पितृभ्य:। अर्थात् – उत्पन्न होने वाला ब्राह्मण तीन ऋणों से युक्त होता है। ब्रह्मचर्य काल में ज्ञानार्जन से ऋषियों का, यज्ञ से देवताओं का और प्रजोत्पत्ति से पितरों का ऋण चुका सकता है। यहां ब्राह्मण शब्द चारों वर्णों का उपलक्षण है जैसा कि महाभारत में कहा गया है कि –

न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्।
ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कम्र्मभिर्वर्णतां गतम्।
अर्थात् – सम्पूर्ण विश्व ब्रह्ममय है। कर्मविशेषों की सिद्धि के लिए ऋषियों ने वर्ण व्यवस्था का नियमन किया है।
वेद में प्रत्येक निर्माण के केन्द्र को मन कहते हैं। ब्रह्म के मन में ही ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ की इच्छा पैदा हुई। यह इच्छा श्रुति में काम नामक पुरुषार्थ कही गई है द्ग ‘कामस्तदग्रे समवर्तताधि। मनसोरेत: प्रथमम् यदासीत्’। जहां मन होता है, वहां पदार्थ की भी दो गतियां होती हैं-ऊध्र्वगति और अधोगति। शरीर में यह संभव नहीं है। वेद, शरीर को भिन्न इकाई के रूप में स्वीकार नहीं करता, वरन्, सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया की ही एक कड़ी मानता है। सृष्टि प्रक्रिया में शरीर हेतु हो सकता (सिद्धान्त रूप से तो नहीं भी हो सकता) है, किन्तु कारण कभी भी नहीं हो सकता। क्षर सृष्टि का कारण तो अक्षर सृष्टि में ही रहेगा। जैसे मानव सृष्टि का योषा-वृषा भी अक्षर रूप है। अक्षर सृष्टि देव प्राणों पर आधारित रहती है। इसके जनक हैं ऋषि प्राण और पितृ प्राण। इनके सहयोग के बिना देव-अक्षर या क्षर पैदा नहीं हो सकते। वेद में जीव की उत्पत्ति में सात पितृ-प्राणों का योग प्रमाणित किया है। दाम्पत्य की भारतीय अवधारणा आत्मिक ही है, शारीरिक नहीं है।

सृष्टि के हर पिण्ड के केन्द्र में ब्रह्म है और परिधि पर माया। प्रत्येक प्राणी, पेड़, पर्वत या कीट-पतंगे, सभी का एक ही सिद्धान्त है। सृष्टि का प्रत्येक पक्ष अद्र्ध नारीश्वर है। हमारी सृष्टि युगल सृष्टि है। अग्नि-सोम के योग से ही आगे बढ़ती है। सृष्टि में प्राणियों की नर और मादा संज्ञा है। मानव-मानवी में योषा-वृषा ही सृष्टि यज्ञ प्रवर्तित करने वाले तत्त्व है।

पुरुष का शरीर भूताग्निप्रधान होने से वृषा है, इसलिए शरीर की दृष्टि से पुरुष-पुरुष है। स्त्री का शरीर भूतसोमप्रधान होने से योषा है। अत: शरीर की दृष्टि से स्त्री-स्त्री है। प्रतिष्ठाग्नि तथा प्रतिष्ठासोम की दृष्टि से जब विचार किया जाता है, तो पुरुष वास्तव में स्त्री है, एवं स्त्री वास्तव में पुरुष है। पुरुष के आग्नेय शरीर की प्रतिष्ठा शुक्र माना गया है। शुक्रसत्ता ही पुरुष सत्ता का कारण है। शुक्र सौम्य है। सौम्य स्त्रीतत्त्व शुक्ररूप से पुरुष की प्रतिष्ठा है। आग्नेय पुरुष के सौम्यशुक्र, तथा सौम्या स्त्री के आग्नेय शोणित के समन्वय से ही गर्भस्थिति होती है।

पुरुष-स्त्री का प्रथम युग्म गर्भस्थिति का कारण नहीं है। पुरुष का सौम्याशुक्ररूप स्त्रीतत्त्व, स्त्री का आग्नेय शोणितरूप पुरुषतत्त्व, स्त्री-पुरुष का युग्म कहा जाता है। इस द्वितीय युग्म से भी गर्भस्थिति नहीं होती। ‘योषा-वृषा’ के युग्म से प्रजनन कर्म सम्पन्न होता है। सौम्य शुक्र के गर्भ में प्रतिष्ठित रहने वाला ‘पुंभ्रूण’ आग्नेय वृषाप्राण प्रधान है। यही शुक्र की प्रतिष्ठा है। आग्नेय शोणित के गर्भ में प्रतिष्ठित रहने वाला ‘स्त्रीभू्रण’ सौम्य योषाप्राण प्रधान है, यही शोणित की प्रतिष्ठा है। जब तक इन दोनों भू्रणों का दाम्पत्यभाव नहीं हो जाता, तब तक शुक्र-शोणित का मिथुनभाव व्यर्थ है। यह तीसरा मिथुनभाव ही गर्भस्थिति का कारण है। यह गर्भ ही पितृऋण से उऋणता दिलाने का माध्यम होता है। संतति ही पितृ तर्पणादि कर्म से पूर्वजों का आत्मा को तृप्त कर सकती है। हममें सात पीढिय़ों के अंश होते है। जब तक हम पिण्ड-तर्पण आदि कर्म नहीं करते हैं तब तक सातवीं पीढ़ी का पितर मुक्त कैसे हो! जैसे-जैसे आगे की पीढ़ी चलेगी वैसे-वैसे पूर्व पीढिय़ों के पितर मुक्त होंगे। यही पितृ ऋण मोचन का महत्त्व है। इसी लक्ष्य से हम विवाहसूत्र में बद्ध होते हैं। नियमपूर्वक दाम्पत्य भाव का अनुगमन कर पितृ ऋण से उऋण होते हैं।

यदि हम इस संतति के प्रवाह को रोकते है तो हमारे पितर कभी मुक्त नहीं हो सकेंगे। अत: प्रत्येक सद्गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह संतान परम्परा को विच्छिन्न न करें क्योंकि सृजन की प्रक्रिया केवल शरीर पर निर्भर नहीं है। वह दो मनों का मिलन तो है ही, दो आत्माओं का मिलन भी है। दाम्पत्य की भारतीय अवधारणा, पति-पत्नी का सम्बन्ध शारीरिक नहीं अपितु आत्मिक मानती है। सात जन्मों का बन्धन मानती है। पश्चिम के प्रभाव में दाम्पत्य सम्बन्ध की यह आध्यात्मिक पृष्ठभूमि धुंधली पड़ती जा रही है, जिसके दुष्परिणाम अनेक रूपों में सामने आ रहे हैं। विवाह-विच्छेद की दिन प्रतिदिन बढ़ती हुई घटनाएं, ‘लिव इन रिलेशनशिप’ जैसी अवधारणाओं को मान्यता और समलैंगिक सम्बन्धों को कानूनी जामा पहनाने जैसे प्रयत्न मानवता को पाशविक स्वच्छन्दता की तरफ धकेल रहे हैं। इस सम्बन्ध में यदि कदाचित् विवाह संस्था की पवित्रता की ओर संकेत किया जाता है, तो उसे ‘आउटडेटेड’ कह दिया जाता है। जबकि इस संस्था का वैज्ञानिक आधार सार्वकालिक और सार्वभौमिक है। मनुष्य जब पशु योनि से विकास की ओर बढ़ता है तो विवाह संस्था का स्वरूप कुछ प्राकृतिक नियमों की वैज्ञानिकता पर टिका है, न कि किसी समाज द्वारा आपसी समझौते के आधार पर बनाई व्यवस्था पर।

भारतीय सनातन परम्परा के मूलभूत मूल्य अनेक बार पश्चिम की भौतिकवाद, उपभोक्तावाद तथा ग्लोबल विलेज आदि अवधारणाओं में दबकर रह जाते हैं। इनकी मौलिकता दृष्टिगोचर ही नहीं होती। तब व्यक्ति की तीन चौथाई शक्तियों (मन, बुद्धि, आत्मा) का आकलन, विकास तथा उपयोग अवरुद्ध रहता है। पुरुषार्थ के धर्म और मोक्ष तो जीवन से विदा ही हो गए। स्त्री-पुरुष की परस्पर पूर्णता और अर्धनारीश्वर का सिद्धान्त भी अपूर्ण ही रहता है। दो अपूर्ण मिलकर जिस अपूर्व का निर्माण करेंगे, वह पूर्ण कैसे होगा?

भारतीय सनातन परम्परा के मूलभूत मूल्य अनेक बार पश्चिम की भौतिकवाद, उपभोक्तावाद तथा ग्लोबल विलेज आदि अवधारणाओं में दबकर रह जाते हैं। इनकी मौलिकता दृष्टिगोचर ही नहीं होती।

दाम्पत्य की भारतीय अवधारणा, पति-पत्नी का सम्बन्ध शारीरिक नहीं अपितु आत्मिक मानती है। सात जन्मों का बन्धन मानती है। पश्चिम के प्रभाव में दाम्पत्य सम्बन्ध की यह आध्यात्मिक पृष्ठभूमि धुंधली पड़ती
जा रही है, जिसके दुष्परिणाम अनेक रूपों में सामने आ रहे हैं।
क्रमश:

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