कुछ लौटने वाले पायलट सुना देते थे। इस युद्ध की विशेषता थी कि यह विपरीत स्थानों और दिशाओं में लड़ा जा रहा था। पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान की सीमाओं पर। तो कभी छम्ब क्षेत्र की खबरें आतीं, तो कभी सिलहट की। पश्चिम में हम बहुत मारक स्थिति में ही रहे। लोंगेवाला युद्ध भी रोंगटे खड़े कर गया। छाछरो रेड में तो हमारे पैराट्रूपर्स लगभग 50 किलोमीटर तक भीतर घुस गए थे। लगा कि हम उनके साथ क्यों नहीं थे। इसी बीच गाजीपुर में साथ-साथ युद्ध चला। छह तारीख को जशोर जिला (बांग्लादेश) स्वतंत्र करा दिया गया। सिलहट में भी गोरखा दो किलोमीटर अन्दर पहुंच गए थे।
अगले ही दिन "अजगर अभियान" में नौसेना के बेड़े ने कराची बन्दरगाह नष्ट कर दिया। तेल भण्डारों को ध्वस्त कर दिया। एक दिन पश्चिम और एक दिन पूर्व की रणनीति कारगर सिद्ध हुई थी। हर रोज नई खुशखबरी।
पूर्व में मेघना नदी क्षेत्र पर कब्जा। पाक सेना ढाका की रक्षा के लिए ढाका की ओर भागने लगी। हमारी वायुसेना ने उनसे आगे जा कर और पीछे से थलसेना ने पाक सेना को ढाका नहीं पहुंचने दिया।
इस बीच युद्ध ने करवट भी बदली। अन्तरराष्ट्रीय शक्तियों ने घुसपैठ दिखाई। अमरीकी नौसेना का बेड़ा बंगाल की खाड़ी तक पहुंच गया। पीछे-पीछे रूस का जहाज भी आ धमका। अमरीकी जहाज को लौटना पड़ा। और, सोलह दिसम्बर को वह दिन आ पहुंचा जब जनरल अरोड़ा ढाका में प्रवेश कर गए। बांग्लादेश स्वतंत्र हो गया था। लगभग 93000 सैनिकों ने हमारी सेना के आगे समर्पण कर दिया।
क्या जश्न मना- सब उछल रहे थे। जो बिछुड़ गए उनके आगे नतमस्तक भी थे-समर्पण भाव से। पूरे युद्ध काल का अंधेरा छंट गया। एक नया सवेरा था, बांग्लादेश को मुक्त आकाश मिला। हमको भी अपने जीवन की कुछ सार्थकता का अहसास हुआ।
आज युद्ध के अथवा बांग्लादेश की स्वतंत्रता के पचास वर्ष पूरे हो चुके। इस स्वतंत्रता को पाने के लिए बांग्लादेश ने युद्ध नहीं किया। वह तो परतंत्रता को बनाए रखने के लिए लड़ा। अत: वहां कोई शहीद नहीं हुआ।
इस स्वतंत्रता का श्रेय पाकिस्तान को जाता है। जिसने भारत को छेड़ा। अकारण छेड़ा। आज तक छेड़ रहा है। भारत ने पिंजरे की खिड़की खोल दी। पंछी सदा के लिए उड़ गया। हम मसीहा बनकर रह गए। आज युद्ध और शांति के अर्थ कुछ और दिखाई पड़ रहे हैं। जीवन का स्वरूप भाईचारे में है, शांति में है। युद्ध मानवता का शत्रु है। प्रारब्ध के आगे सब गौण-मौन!
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