scriptविश्व का गौरव है गुरुदेव की ‘गीतांजलि’ | Gurudev's 'Gitanjali' is the pride of the world | Patrika News

विश्व का गौरव है गुरुदेव की ‘गीतांजलि’

locationनई दिल्लीPublished: May 07, 2021 09:11:58 am

रवींद्रनाथ टैगोर की जयंती पर विशेष: अंग्रेजी में ‘गीतांजलि’ नवंबर 1912 में प्रकाशित हुई। अंग्रेजी अनुवाद छपते ही युद्ध से उस समय जर्जर संसार में प्रेम और शांति के संदेश के लिए पश्चिमी देशों ने इस कृति का जोरदार स्वागत किया।
‘गीतांजलि’ में ही ‘भारत तीर्थ’ शीर्षक कविता में रवींद्रनाथ बताते हैं कि भारत का समस्त मानव समाज एक कुटुम्ब, बल्कि एक शरीर की तरह है। यह देह ही भारतबोध है।

विश्व का गौरव है गुरुदेव की 'गीतांजलि'

विश्व का गौरव है गुरुदेव की ‘गीतांजलि’

कृपाशंकर चौबे
प्रोफेसर, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की हस्तलिपि में पुस्तक रूप में उपलब्ध ‘गीतांजलि’ की बांग्ला पाठकों में दिनोंदिन बढ़ती मांग से स्पष्ट है कि हाथ से लिखे अक्षरों का महत्व किसी काल में कम नहीं होने वाला। आखिर गुरुदेव की हस्तलिपि में ‘गीतांजलि’ को बांग्ला और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में पढऩे के आनंद से कौन पाठक वंचित होना चाहेगा? पिछले बारह वर्षों से पुस्तक रूप में उपलब्ध ‘गीतांजलि’ की मूल पांडुलिपि की इस प्रतिलिपि की पाठकों में जबर्दस्त मांग को देखते हुए आए दिन इसका पुनर्मुद्रण कराया जाता है।

बांग्ला में ‘गीतांजलि’ 1910 में छपी थी। इंडियन पब्लिशिंग हाउस से। प्रकाशक थे – सतींद्रनाथ मित्र। 1912 में इंग्लैंड जाने के पहले रवींद्रनाथ कुछ दिन सियालदह में रुके थे और उसी दौरान उन्होंने एक नोटबुक में ‘गीतांजलि’ का अंग्रेजी अनुवाद खुद शुरू किया था। रवींद्रनाथ 24 मई 1912 को प्रतिमा देवी के साथ जब पानी के जहाज से इंग्लैंड के लिए रवाना हुए तो उनके साथ वह नोटबुक भी थी। यात्रा में भी कुछ और अनुवाद उन्होंने किए। उसी नोटबुक में। 16 जून को गुरुदेव इंग्लैंड पहुंचे और वह नोटबुक उन्होंने विलियम रटेनस्टाइन को दिखाई। रटेनस्टाइन उसे पढ़कर मुग्ध हुए। उन्होंने अंग्रेजी में उसे टाइप कराया और कई मित्रों को पढ़ाया और अंतत: वह प्रकाशक के पास पहुंची। उस प्रकाशक ने अंग्रेजी में ‘गीतांजलि’ नवंबर 1912 में प्रकाशित की। ‘गीतांजलि’ का अंग्रेजी अनुवाद छपते ही युद्ध से उस समय जर्जर संसार में प्रेम और शांति के संदेश के लिए पश्चिमी देशों ने इस कृति का जोरदार स्वागत किया। अंग्रेजी में छपी ‘गीतांजलि’ में कुल 103 कविताएं थीं। ‘गीतांजलि’ की 53, ‘नैवेद्य’ की 17, ‘गीतिमाल्य’ की 15, ‘खेया’ की 11, ‘शिशु’ की तीन और ‘अचलायतन’, ‘चैताली’, ‘कल्पना’, ‘स्मरण’ और ‘उत्सर्ग’ की एक-एक कविता उसमें संकलित हुई थीं। ये कविताएं गंभीर शांति की भावना से ओत-प्रोत हैं।

अंग्रेजी में ‘गीतांजलि’ के छपते ही चारों ओर गुरुदेव का डंका बजने लगा। उस पर 1913 में गुरुदेव को नोबेल पुरस्कार मिला। रटेनस्टाइन के पास ‘गीतांजलि’ की मूल पांडुलिपि सुरक्षित रह गई थी। वह पांडुलिपि अभी भी अमरीका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय के ह्यूस्टन पुस्तकालय के रटेनस्टाइन पेपर्स में संरक्षित है। उस मूल पांडुलिपि की प्रतिलिपि अहमदाबाद के मोहनदास भाई पटेल ने बंगाल के अवीक कुमार दे को उपलब्ध कराई तो अवीक कुमार दे ने उसे पुस्तक रूप में प्रकाशित करने की अपनी इच्छा हाल में दिवंगत बांग्ला कवि शंख घोष को बताई। शंख घोष ने साहित्य संसद, कोलकाता से संपर्क किया और इस तरह 2009 में पहली बार ‘गीतांजलि’ की मूल पांडुलिपि की प्रतिलिपि पुस्तक रूप में छप गई। इसकी कीमत सिर्फ दो सौ रुपए है। लाल रंग के कवर वाली 192 पृष्ठों की किताब के प्रस्तुतकर्ता जाहिर है अवीक कुमार दे ही हैं।

इस किताब के आरंभ में विलियम रटेनस्टाइन के साथ रवींद्रनाथ का एक श्याम-श्वेत चित्र छपा है जो 1912 में इंग्लैंड में खींचा गया था। इसके अगले ही पृष्ठ में रटेनस्टाइन की हस्तलिपि में यह नोट छपा है – ओरिजिनल मैन्स्क्रिप्ट ऑफ गीतांजलि व्हिच द पोएट ब्रॉट मी फ्रॉम इंडिया। इस किताब में कई जगह कवि ने सिर्फ अंग्रेजी अनुवाद दिया है। कुछ कविताओं के अनुवाद में उन्होंने काटकर संशोधन भी किए। कुछ कविताओं का अनुवाद पूरी तरह से काटकर रद्द भी किया। किंतु कई ऐसे पृष्ठ भी हैं जिनमें कोई कांट-छांट नहीं, जैसे ‘जाबार दिने एई कथाटि बोले जेनो जाई।’ इसकी आरंभिक पंक्तियों का हिंदी रूपांतर है – ‘जाने के दिन यह बात मैं कहकर जाऊं। यहां जो कुछ देखा-पाया, उसकी तुलना नहीं। ज्योति के इस सिंधु में जो शतदल कमल शोभित है, उसी का मधु पीता रहा, इसीलिए मैं धन्य हूं।’

‘गीतांजलि’ की कविताओं का फलक बहुत विस्तृत है। उसमें प्रेम, शांति है तो दलित विमर्श की बुनियाद रखने वाली ‘अपमानित’ शीर्षक कविता भी है और भारत बोध की परिभाषा देती ‘भारत तीर्थ’ कविता भी। ‘अपमानित’ में रवींद्रनाथ ने जातिगत भेदभाव का तीव्र प्रतिकार किया था – ‘हे मोर दुर्भागा देश, जादेर करेछ अपमान, अपमानेर होते होबे ताहादेर सबार समान।’ यानी ‘हे मेरे देश, तुमने जिनका अपमान किया है/ अपमान में तुम्हें उन सबके समान होना होगा। जिन्हें तुमने मनुष्य के अधिकार से वंचित किया है/ सामने खड़ा रखा और तो भी गोद में जगह न दी/ अपमान में तुम्हें उन सबके समान होना होगा। मनुष्य के स्पर्श को प्रतिदिन दूर हटाते हुए/ तुमने मनुष्य के प्राणों के देवता से घृणा की है। विधाता के भयंकर रोष से अकाल के द्वार पर बैठ/ उन सबके साथ बांटकर तुम्हें अन्न जल खाना होगा। अपमान में उन सबके समान होना होगा।’ ‘अपमानित’ जैसी कविता लिखकर रवींद्रनाथ दलितों के प्रति ऊंची जातियों को संवेदनशील बनाने की चेष्टा करते हैं, वहीं ‘भारत तीर्थ’ में रवींद्रनाथ बताते हैं कि भारत का समस्त मानव समाज एक कुटुम्ब, बल्कि एक शरीर की तरह है। वे ‘भारत तीर्थ’ में कहते हैं -‘आर्य, अनार्य, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान, मुगल सब यहां एक देह में लीन हो गए।’ यह देह ही भारतबोध है।

किताब के पहले पन्ने पर गुरुदेव ने पहले अंग्रेजी अनुवाद दिया है- दिस इज माइ डिलाइट (आमार एई पथ चावाई आनंदो)। यानी मुझे इस राह को चाहने में ही आनंद है। इसके बाद ‘कोलाहलउ बारन होलो, एबार कथा काने-काने’ कविता का अनुवाद है। यानी कोलाहल भी मना हो गया, अब बातें कान में हों। यह किताब रवींद्रनाथ की भिन्न-भिन्न शैलियों, विषयों, प्रसंगों और मनोभावों का परिचय देती है।

अंग्रेजी में छपी ‘गीतांजलि’ में कुल 103 कविताएं थीं। ‘गीतांजलि’ की 53, ‘नैवेद्य’ की 17, ‘गीतिमाल्य’ की 15, ‘खेया’ की 11, ‘शिशु’ की तीन और ‘अचलायतन’, ‘चैताली’, ‘कल्पना’, ‘स्मरण’ और ‘उत्सर्ग’ की एक-एक कविता उसमें संकलित हुई थीं। ये कविताएं गंभीर शांति की भावना से ओत-प्रोत हैं।

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