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हैप्पी न्यू ईयर

Published: Dec 31, 2020 08:24:12 am

Submitted by:

Gulab Kothari

मेरे भारत को ‘इंडिया’ खा गया। जैसे ‘मेक इन इंडिया’ हो गया। हमारी आत्मनिर्भरता का अर्थ भारत नहीं इंडिया ही होगा। जैसे आज पूरा देश ‘न्यू ईयर ईव’ मनाएगा। हैप्पी का एक अर्थ है-खाओ-पीओ, नाचो-गाओ।

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– गुलाब कोठारी

मेरे भारत को ‘इंडिया’ खा गया। जैसे ‘मेक इन इंडिया’ हो गया। हमारी आत्मनिर्भरता का अर्थ भारत नहीं इंडिया ही होगा। जैसे आज पूरा देश ‘न्यू ईयर ईव’ मनाएगा। हैप्पी का एक अर्थ है-खाओ-पीओ, नाचो-गाओ। शरीर है हैप्पी, तो हम हैप्पी। आनन्द का कोई सम्बन्ध नहीं इससे। हो भी कैसे! हमारे कोई सपने जुड़े हुए नहीं, इस हैप्पी होने से। जिस कलैण्डर के आधार पर यह ‘हैप्पी न्यू ईयर’ मनाया जाता है, उसमें क्या रहता है? यह मात्र महीनों और दिनों का एक क्रम देता है और उसमें कहां-कहां छुट्टियां होंगी। यह नौकरी करने वालों का, छुट्टियां गिनाने वाला, कलैण्डर है। छुट्टियां ही हैप्पी होने का आधार है। माह खोलते ही छुट्टियां गिनी जाती हैं। पहले ही सप्ताह में दो छुट्टियां मिलती हैं। क्या किसी शुक्रवार अथवा सोमवार की भी छुट्टी है? वह तो मेरे ‘लौंग वीक-एण्ड’ हो जाएगा। कहीं घूमने-फिरने जा सकता हूं। जो देश पुरुषार्थ के लिए जीता था, आज कर्महीनता से हैप्पी हो रहा है। बिना कर्म किए जीने को उत्सुक है। वरन्, आम आदमी के लिए क्या अर्थ है इस नव वर्ष का? यह नकल करने का अथवा चिरस्थायी अंग्रेजी मानसिकता का प्रभाव ही कहा जाएगा, जो हमारी मूल संस्कृति को ही लील गया। हम आज कितने गौरवान्वित हैं कि हम भी पश्चिमी देशों की तरह विकसित हो गए हैं। हमें बांधकर रखा था-
‘मातृदेवो भव।’
‘पितृदेवो भव।’
‘आचार्य देवो भव।’

जैसे आदर्श वाक्यों ने। आज मैं मुक्त हूं-‘मदर्स डे’ ‘फादर्स डे’ और ‘टीचर्स डे’ के नाम पर। वर्ष में बस एक दिन। बाकी 365 दिन, उनकी वे जाने। सब अपने तरीके से जीवन जीना चाहते हैं। अवश्य जीना चाहिए पर इस बात पर विचार कर लेना चाहिए कि हमारे लिए कौन सा रास्ता उचित है।
खान-पान ही क्या, सम्पूर्ण जीवनशैली ही बदल गई। शिक्षा से भारतवर्ष ही नदारद है। देर से सोना, ‘हैप्पी’ होना है। ब्रह्म मुहूर्त और स्वाध्याय जीवन से बाहर हो गए। आज कहीं रात्रि भोज के लिए जाना हो, तो नौ-दस बजे से पहले कोई पहुंचते ही नहीं। फिर पहले शराब और अन्त में खाना। असुरों का श्मशान जगाने का समय हो जाता है। पश्चिम के किसी देश में ऐसा नहीं है। हमने कहां सीखा? भारत में तो ‘ब्यालू’ करते थे।
खाना तो कहां से कहां चला गया। अन्न, कभी ब्रह्म था। आज केवल ‘भ्रम’ रह गया है। रात का भोजन प्रात: ‘बासी’ हो जाता है। जो तामसी कहा जाता है। आज तो ‘ब्रेड/डबल रोटी’ (हम रोटी खाते हैं) ५-७ दिन पुरानी खाकर हैप्पी होते हैं। इसी तरह दूध १०-१५ दिन पुराना। क्योंकर हैप्पी हो सकते हैं! अनाज तो पहले ही विष हो चुका है। मौसम के अनुरूप खाना विदेशी खाने (भिन्न-भिन्न देशों के आयातित व्यंजन) के साथ ही समाप्त होने लग गया। वहां पूरे वर्ष एक जैसा खाना खाया जाता है। हैप्पी तो रह ही नहीं सकते।
जीवन के प्रति दृष्टिकोण भी विकास के नाम पर सारे बन्धन तोड़ रहा है। हम अपने भीतरी स्वरूप को भूलकर बाहर ही बाहर जी रहे हैं। जीवन का शाश्वत भाव लुप्त हो गया, मात्र नश्वर स्वरूप रह गया। इसका अर्थ है कि शरीर तो मनुष्य का है और जीवन पशु सदृश्य रह गया। मनुष्य आत्म भाव से दूर होता जा रहा है।
किसी को बंधे रहकर-सदाचारी बनकर-जीने की कहां पड़ी है? शिक्षा में केवल पेट भरना, स्वयं के जीवन को अन्य के अधीन कर देना (नौकरी) के सिवाय क्या मिलता है? जीवन अर्थहीन हो गया। शिक्षित व्यक्ति रिटायर होकर मर जाना श्रेष्ठ मानता है। किसी अन्य के काम आना शिक्षा का लक्ष्य ही नहीं है।
एक बड़ा परिवर्तन शादी की उम्र बढ़ जाने का आया। समय पर (प्रकृति के नियमानुसार) कोई जीने को तैयार ही नहीं। स्वच्छन्दता जीवन में बहुत बड़ा संकट बनती जा रही है। समाज भी मौन है, और मां-बाप भी उत्तरदायित्व उठाना नहीं चाहते। बड़ी उम्र की लड़कियों को कितना संघर्ष करना पड़ रहा है-नजदीकी रिश्तेदारों से, बाहरी तत्त्वों से, नौकरी में वरिष्ठ अधिकारियों से, ये दृश्य तो मीडिया में आम बात हो गई। मां-बाप भी लड़की को ससुराल में, घर बसाकर, जीने को तैयार ही नहीं करते। बल्कि अपने पांवों पर खड़ा होना सिखाकर भेजने लगे हैं। मीडिया ने शादी के प्रति दृष्टिकोण ही बदल डाला। ‘लव जिहाद’ जैसे काण्ड चारों ओर होने लगे हैं। मां-बाप पूरी उम्र बेटी को कष्ट में देखकर कैसे सुखी रहने वाले हैं? इनके लिए ‘मातृ देवो भव’ के स्थान पर ‘मदर्स डे’ उचित ही है।
लड़की शादी के साल गिनना सीख गई। भारत में पत्नी सीधे घर में प्रवेश करती थी, यानी कि चलकर आती थी, और लेटकर (मृत्यु के बाद) जाती थी। सात जन्म के रिश्ते कहे जाते थे। आज पश्चिम की तरह वर्षगांठ मनाते हैं। वहां तो दो-तीन बार शादियां हो जाती हैं। हर एक के साथ काल गणना होती है। हम भी नकलची हैं।
सभी परम्परागत देशों ने अपनी मातृभाषा के सहारे ही विकास किया-चीन, रूस, जापान आदि। विज्ञान में भी पिछड़े नहीं हैं। भारत के लोग ही क्यों उधार के ज्ञान के सहारे ठोकरें खाने को मजबूर हैं? सत्तर साल में भी अंग्रेजी से मुक्त होकर हैप्पी नहीं हो पाए।
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