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नफरत और हिंसा लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा

Published: Jun 30, 2022 07:20:32 pm

Submitted by:

Patrika Desk

समय रहते कार्रवाई तो होनी ही चाहिए, लेकिन घृणा और हिंसा का निवारण सिर्फ सुरक्षा बलों से नहीं हो सकता। यह कानून के उल्लंघन की प्रवृत्ति के साथ गंभीर सामाजिक बीमारी का द्योतक भी है। यह बीमारी कभी देश, राष्ट्र और धर्म की गलत समझ से पैदा होती है, तो कभी न्याय की अनुपस्थिति से। भारत इस समय एक अजीब तरह के

नफरत और हिंसा लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा

नफरत और हिंसा लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा

लेखक और शिक्षक

उदयपुर की घटना ने हमें एक ओर भौगोलिक रूप से पाकिस्तान, अफगानिस्तान और मध्यपूर्व के कट्टर और आंतरिक संघर्ष में उलझे देशों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है, तो दूसरी ओर समय के फलक पर मध्ययुग में धकेल दिया है। यह बर्बरता उस समय हुई है, जब हम अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और इसे अमृत काल घोषित कर रहे हैं। इस घटना ने न सिर्फ हमारे भीतर तक सिहरन पैदा कर दी है, बल्कि यह संदेश भी दिया है कि हमारे स्वाधीनता संग्राम से निकला भारत का विचार अपने समाज में या तो भीतर तक गया नहीं है या फिर वह अब बहुत विकृत हो चुका है।
निश्चित तौर पर ऐसी घटना को अंजाम देने वालों को कानून के अनुसार कठोरतम सजा से दंडित किया जाना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की ओर से यही मांग भी उठ रही है, लेकिन क्या नए भारत का रास्ता महज दंड देने और भय पैदा करने से निकलेगा। अक्सर लोग हर दंगे के बाद, किसी की मॉब लिंचिंग के बाद या आतंकी घटना के बाद सुरक्षा एजेंसियों को जिम्मेदार ठहराते हुए यह टिप्पणी करने लगते हैं कि अगर समय रहते कार्रवाई हुई होती, तो उसे रोका जा सकता था। समय रहते कार्रवाई तो होनी ही चाहिए, लेकिन घृणा और हिंसा का निवारण सिर्फ सुरक्षा बलों से नहीं हो सकता। यह कानून के उल्लंघन की प्रवृत्ति के साथ गंभीर सामाजिक बीमारी का द्योतक भी है। यह बीमारी कभी देश, राष्ट्र और धर्म की गलत समझ से पैदा होती है, तो कभी न्याय की अनुपस्थिति से। भारत इस समय एक अजीब तरह के कशमकश से गुजर रहा है। एक ओर उसके पास अपनी बहुलवाद की प्राचीन विरासत है, जो सद्भाव, प्रेम और अहिंसा सिखाती है, तो दूसरी ओर सभ्यताओं के संघर्ष की अंतरराष्ट्रीय स्थितियां और नवउदारवाद के साथ बढ़ी कट्टरता और उसे दबाने के लिए तेज होता राज्य का दमन इन भारतीय मूल्यों को मुंह चिढ़ा रहा है। सांप्रदायिक हिंसा से जुड़े मौजूदा विवाद की जड़ें एक ओर भारत के विभाजन जैसे रक्तरंजित इतिहास में है, तो दूसरी ओर पश्चिम की आधुनिकता और उससे बढ़े इस्लाम से टकराव में हैं। भारत अपने राज्य और समाज के चरित्र और संरचना के सहारे इससे निकलने की जितनी कोशिश कर रहा है, उतना ही उसमें फंसता जा रहा है, लेकिन इस ढलान पर गिरते रहना नासमझी तो होगी ही अपनी विरासत को नकारना भी होगा। हमें हर हाल में इससे बचना होगा।
देश में गंगा-जमुनी तहजीब की विरासत रही है। मुस्लिम समुदाय में ऐसे शायर हुए हैं, जिन्होंने कृष्ण भक्ति के शेर कहे हैं, तो ऐसे हिंदू कवि हुए हैं, जिन्होंने मोहम्मद की शान में कसीदे पढ़े हैं। यह एक नई सभ्यता के विकास की प्रक्रिया थी, जिससे दुनिया देखकर ईष्र्या करती थी और हैरान रहती थी। इस मायने में हिंदुस्तान उन तमाम राजनीतिक विश्लेषकों को मुंह चिढ़ाता था, जो यूरोपीय बहुलवाद की तारीफ करते नहीं थकते थे। इसी दौरान महात्मा गांधी जैसे राजनेता हुए हैं, जिन्होंने धर्म के आधार पर पनप रही नफरत और हिंसा को इंसानियत का यथार्थ मानने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि जिस तरह ब्रह्मांड के विभिन्न नक्षत्र गुरुत्वाकर्षण शक्ति के माध्यम से एक दूसरे से बंधे हुए हैं, ठीक उसी तरह से मानवता भी प्रेम की शक्तिमें बंधी हुई है, तभी वह लंबे समय से चली आ रही है। प्रेम की इसी शक्ति को समझना होगा। यहीं अभिव्यक्ति का सवाल भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। प्राचीन धर्म ग्रंथों से लेकर मध्ययुग और आधुनिक काल में यह बार-बार चेताया गया है कि हमारी अभिव्यक्ति किसी को आहत करने वाली नहीं होनी चाहिए। ऐसी बानी बोलिए… या सत्यम् ब्रूयात.. जैसे दोहे इसके उदाहरण हैं। दूसरी ओर समाज में ऐसा विवेक होना चाहिए कि वह बात को सही संदर्भ में ग्रहण करे। इस संदर्भ में मीडिया की भूमिका अहम हो जाती है। अगर कोई भी मीडिया या उसका प्रस्तोता समाज में सद्भाव और विवेक से संपन्न जनमत पैदा करने की बजाय द्वेष और नफरत के माध्यम से कटुता भरा जनमत पैदा करने की कोशिश कर रहा है, तो समाज को उसका बॉयकाट करना चाहिए और सरकार को उस पर लगाम लगानी चाहिए।
भारत का अतीत एक महान देश का रहा है और औपनिवेशिक दासता और विभाजन को झटकर खड़ा हुआ यह देश आज भी वह अपनी उस महानता और समृद्धि को हासिल करने की राह पर है। लेकिन, नफरत और हिंसा की औपनिवेशिक साजिश इस लोकतांत्रिक स्वराज के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। इससे निपटने के लिए एक ओर समाज के विभिन्न तबकों के बीच मानवता के संयुक्त भविष्य की समझ बनानी होगी, तो दूसरी ओर राज्य नामक संस्था को पक्षपात छोडऩा होगा। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के यही मायने हैं कि वह न हिंदू का पक्ष ले और न ही मुसलमान का। वह सत्य के साथ खड़ा रहे और कानून का राज कायम करने के लिए प्रतिबद्ध रहे।

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