अब सोशल मीडिया पर उसके लिए न्याय की मांग हो रही है, अभियान चल रहे हैं। आज हाथरस है, कल कोई दूसरा शहर या गांव-कस्बा होगा। हैवान हर जगह हैं, कैसे बचाओगे बेटियों को इनसे? कब तक यूं ही सब कुछ सहन करते रहेंगे? सवाल यह है कि आखिर क्या मजबूरी थी कि पुलिस ने आधी रात को ही अंतिम संस्कार कर दिया? सवालों की फेहरिस्त लंबी है, लेकिन मुश्किल यही है कि जवाब कौन देगा? क्या अपनी नाकामी को रात के स्याह अंधेरे में जलाकर अपनी जिम्मेदारियों की इतिश्री कर खुद को काबिल बताने में लगी है पुलिस?
हर बलात्कार इस देश के सिस्टम और सोच पर सवाल खड़े करता है। सवाल पुलिस से ज्यादा उन सरकारों के नेताओं से भी हैं, जिनकी जुबान दूसरे राज्यों के अपराधों पर तो खूब चलती है, लेकिन खुद के राज्य में होने वाली घटनाओं पर सांप सूंघ जाता है, आखिर क्यों? निर्भया के रेप पर चीखने वाली भाजपा अपने राज्यों में होने वाली घटनाओं पर ऐसी खामोशी क्यों ओढ़ लेती है? सवाल केवल भाजपा से नहीं है, सवाल उन सभी राजनीतिक दलों और नेताओं से हैं, जिन्हें अपने राज्यों में अपराध दिखाई नहीं देते हैं।
इस तरह के मामलों में भी वोट तलाशने के खेल में पुलिस एक सियासी हथियार भर है। विडंबना यह है कि ऐसे मामलों में भी जाति और धर्म का तड़का दिया जाता है, जिससे वोटों को प्रभावित किया जा सके। सोशल मीडिया पर भावनाओं को जाहिर कर सियासी हित साधने का प्रयास होता है। आखिर इस तरह की घटनाओं को रोका कैसे जाए? इसके साथ ही पुलिस को ऐसी घटनाओं के प्रति कैसे ज्यादा जिम्मेदार और जवाबदेह बनाया जाए? कैसे उन्हें संवेदनशील होकर काम करना सिखाया जाए? बलात्कार जैसे घिनौने अपराधों को रोकना जरूरी है। हिम्मत सरकार दिखाए। बैठकर बात करे।
राजनीतिक दल सियासत की बजाय नए रास्ते तलाशें। सिर्फ सोशल मीडिया पर भावनाएं जाहिर कर देने से किसी को न्याय नहीं मिल जाएगा। न्याय के लिए जरूरत है कि पहल जमीन पर होती हुई दिखाई देनी चाहिए।