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लाचारी आर्थिक संकट की

Published: Apr 03, 2016 11:37:00 pm

दुनिया जब परमाणु सुरक्षा और आतंकवाद को जोड़ कर देख रही है तो पाकिस्तान और चीन का रुख समझ से परे है।

Economic Crisis

Economic Crisis

दुनिया जब परमाणु सुरक्षा और आतंकवाद को जोड़ कर देख रही है तो पाकिस्तान और चीन का रुख समझ से परे है। पठानकोट हमले के मास्टरमाइंड मसूद अजहर को प्रतिबंधित करने के भारतीय प्रस्ताव को चीन ने संयुक्त राष्ट्र में आतंक की तकनीकी परिभाषा की आड़ में मानने से इनकार कर दिया। देश के दक्षिणी क्षेत्र में आतंक से जूझने के बावजूद मसूद अजहर, जकीउर्रहमान लखवी जैसे आतंकियों की पनाहगाह बने पाकिस्तान से दोस्ताना निभाने के पीछे आखिर चीन की कौनसी मजबूरी छिपी है? क्या उसकी बिगड़ती आर्थिक हालत ही इसके लिए जिम्मेदार है? क्या इस दोस्ती के कारण अलग-थलग पड़ जाएंगे चीन और पाकिस्तान? ऐसे ही मुद्दों पर स्पॉटलाइट…


प्रो. स्वर्ण सिंह जेएनयू, नई दिल्ली

ब राक ओबामा ने अमरीकाा का राष्ट्रपति बनने के साथ ही आतंकवाद को 21वीं सदी का सबसे बड़ा खतरा बताया था। उनकी चिंता परमाणु सुरक्षा को लेकर रही। हाल ही में अमरीका में आयोजित परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में का मुख्य मुद्दा परमाणु आतंकवाद ही था और उसमें इस बात को लेकर गहरी चिंता जताई गई कि कहीं आतंकी संगठनों के हाथ में परमाणु हथियार या इन्हें बनाने की सामग्री न लग जाए। इसके लिए परमाणु शक्ति संपन्न सभी देशों को आगाह भी किया गया।


भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस सम्मेलन में शिरकत की और उन्होंने इस मामले पर अनेक उपाय अपनाने के सुझाव देते हुए पाकिस्तान में शरण पाए आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर पर व्यक्तिगत रूप से पाबंदी का प्रस्ताव भी दिया। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र की ओर से सुरक्षा को लेकर जैश ए मोहम्मद और लश्कर ए तैयबा को तो आतंकी संगठन माना लेकिन इनके सरगनाओं को नहीं। इस बार जैश के सरगना पठानकोट हमले के मास्टरमाइंड मसूद अजहर को व्यक्तिगत रूप से प्रतिबंधित घोषित कराने के भारत के प्रस्ताव पर सभी बड़े राष्ट्र सहमत थे लेकिन चीन ने इस मामले पर पाकिस्तान से दोस्ताना निभाते हुए अड़ंगा लगाया। संयुक्त राष्ट्र में उसके प्रतिनिधि ल्यू जेई ने साफ तौर पर कहा कि मसूद अजहर संयुक्त राष्ट्र की आतंकी की परिभाषा के दायरे में नहीं आता।

यह अस्वाभाविक नहीं

जब परमाणु सुरक्षा को लेकर बात हो रही हो तो पाकिस्तान और वहां खुले घूमने वाले आतंकी संगठनों के सरगनाओं की बात भी होती है। पाकिस्तान का घरेलू माहौल ऐसा है कि वहां न केवल आतंकी संगठनों को शरण मिलती रही है बल्कि उन्हें बचाने की भी हरसंभव कोशिश की जाती रही है। यही वजह है कि इसके लिए अपने पुराने दोस्त चीन के सामने गिड़गिड़ाता है। चूंकि चीन संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद का हालिया अध्यक्ष बना है तो इस काम में पाकिस्तान को वह सरलता से मदद देने की स्थिति में रहा।


इसके अलावा काश्गर से लेकर ग्वादर बंदरगाह तक चीन आर्थिक कॉरिडोर तैयार कर रहा है। इसके लिए समर्थन हासिल करना उसक मजबूरी भी रही है। वास्तव में चीन की आर्थिक हालत खराब है और वह दक्षिण एशिया के छोटे देशों के राजनीतिक प्रभुत्व के साथ आर्थिक लाभ के रास्ते भी खोजता है। इसके साथ ही पाकिस्तान के माध्यम से भारत और उत्तरी कोरिया के माध्यम से जापान को रोकने के उपाय भी खोजता है।

आतंक को लेकर सोच


चीन के इस कदम से भारत कोई बहुत बड़ी लड़ाई नहीं हार गया है, हां, इससे कुछ हद तक निराशा जरूर है। लेकिन, हमें यह देखना प्रधानमंत्री मोदी की ब्रसेल्स, अमरीका और फिर स.अरब की यात्रा से क्या पाया है? हकीकत में भारत के संबंध दुनिया में केवल द्विपक्षीय नहीं बल्कि बहुपक्षीय हो रहे हैं। भारत उभरती बड़ी आर्थिक शक्ति है। उसने आतंकवाद के मामले में दुनिया का नजरिया बदला है कि यह केवल गरीबी की देन नहीं है। लोग अब भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इसका सामने करने के तैयार हो रहे हैं। आतंकवाद पर भारतीय सुझावों को मान्यता मिल रही है। हकीकत तो यह है कि पाकिस्तान जिन देशों से मुस्लिम देश होने के नाम पर सहयोग हासिल करता रहा है, वे भी भारत से जुड़ रहे हैं।


 चाहे मध्य पूर्व के देश हों या फिर सऊदी अरब। वे भारत की विकास दर के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घटती कच्चे तेल की कीमतों के कारण बिगड़ती आर्थिक स्थिति को भी समझ रहे हैं। कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देश भारत से सीखना चाहते हैं कि सीमित संसाधनों के साथ भारत किस तरह से आतंकवाद से निपटने की बात कर रहा है। दूसरी तरफ स्थिति यह है कि चीन पाकिस्तान का इकलौता मित्र देश बन रहा है। लेकिन, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह स्थिति लंबे समय तक नहीं चल सकती। आखिर, चीन की सीमा है। लंबे समय तक तो वह भी पाकिस्तान का साथ नहीं निभा सकता।


बदला है नजरिया
ह कीकत में भारत के संबंध दुनिया में केवल द्विपक्षीय नहीं बल्कि बहुपक्षीय हो रहे हैं। भारत उभरती हुई बड़ी आर्थिक शक्ति है। उसने आतंकवाद के मामले में दुनिया का नजरिया बदला है कि यह केवल गरीबी की देन नहीं है। लोग अब भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इसका सामने करने के तैयार हो रहे हैं। आतंकवाद पर भारतीय सुझावों को मान्यता मिल रही है। हकीकत तो यह है कि पाकिस्तान जिन देशों से मुस्लिम देश होने के नाम पर सहयोग हासिल करता रहा है, वे भी भारत से जुड़ रहे हैं।


अतार्किक है चीनी रवैया


जे. जगन्नाथन रक्षा विशेषज्ञ

आतंक के मामले को लेकर भारत का नजरिया बिल्कुल साफ है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी बात बहुत ही स्पष्ट तरीके से चौथे परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में भी रखी। भारत की ओर से जैश ए मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को आतंकी घोषित कर उसे प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव आया तो चीन ने भारत के इस प्रस्ताव का विरोध किया। जो लोग चीन की फितरत को समझते हैं और उन्हें उसके इस विरोध पर किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह तो निश्चित ही था कि उसकी ओर से भारत के किसी भी प्रस्ताव का विरोध ही किया जाएगा। शायद ही कभी ऐसा होगा कि दक्षिण एशिया के संदर्भ में भारत के किसी भी प्रस्ताव का चीन समर्थन करे। पाकिस्तान और चीन में काफी पुरानी दोस्ती है। पाकिस्तान की ओर से तो कहा भी गया था कि चीन के साथ उसके रिश्ते शहद से अधिक मीठे समुद्र से अधिक गहरे हैं। चीन को स्वाभाविक तौर पर इन रिश्तों का लिहाज तो करना ही था।

चीन के हित



दक्षिण एशियाई की राजनीति में वह अपना दखल बढ़ाता जा रहा है। मामला चाहे श्रीलंका से संबंधित हो या फिर पाकिस्तान से, चीन के अपने क्षेत्रीय हित जुड़े हुए हैं। वह अपने क्षेत्रीय हितों को सबसे ऊपर रखककर चलता है। इस मामले में वह कोई समझौता नहीं करता। अपनी इसी रणनीति के तहत उसने मसूद अजहर को प्रतिंबधित करने के भारतीय प्रस्ताव का विरोध किया। पाकिस्तान में चीन का सबसे बड़ा हित है पाक अधिकृत कश्मीर से होते हुए काश्गर से ग्वादर बंदरगाह तक बनने वाला आर्थिक कॉरिडोर। यदि पाकिस्तान में चीन का किसी भी किस्म का विरोध होने लगे तो इस आर्थिक कॉरिडोर को खतरा उत्पन्न होने की आशंका बहुत अधिक बढ़ सकती है। चीन की मजबूरी है कि वह पाकिस्तान में हर स्तर पर घरेलू परिस्थिति को अपने पक्ष में बनाए रखे।

मजबूरियां भी हैं

पाकिस्तान में घरेलू स्तर पर लोगों को तुष्ट करने के लिए यह जरूरी था कि वह परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में भारत के किसी भी प्रस्ताव का विरोध करे। फिर, यह प्रस्ताव तो मसूद अजहर से संबंधित था, इसलिए भी उसे इसका विरोध करना ही था। चीन यह भी समझता है कि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक प्रतिनिधियों के अलावा सेना है और सेना के अतिरिक्त बहुत से स्वतंत्र आतंकी संगठन भी हैं। चीन किसी भी ऐसे संगठन या ताकत को नाराज करके नहीं चलना चाहता जो पाकिस्तान में उसके हितों को नुकसान पहुंचाएं। चीन को समझना चाहिए कि हत्या तो हत्या ही होती है। इसे छोटी या बड़ी हत्या में नहीं विभाजित किया जा सकता।


इसी तरह आतंक भी आतंक ही होता है, यह छोटा या बड़ा नहीं होता। इसे किसी संगठन के नियमों के नजरिये से नहीं देखा जा सकता। उसका यह तर्क कि संयुक्त राष्ट्र के नियमों के मुताबिक मसूद अजहर को आतंकी नहीं कहा जा सकता, बिल्कुल गलत और बहुत ही अतार्किक है। दूसरी बात यह है चीन को अमरीका और फ्रांस से सबक सीखना चाहिए। अमरीका भी 9/11 से पहले तक आतंक में इसी किस्म का भेद करता था लेकिन जब उस पर बीती तक उसे समझ में आया कि आतंक होता क्या है? इसी तरह जब फ्रांस में आतंकी हमले हुए, तब उसे भी यही बात समझ में आई। चीन के भी कुछ इलाके आतंक की गिरफ्त में हैं। वह भी आतंकवाद को झेल रहा है। ऐसे में उसे अपने स्वार्थ को छोड़ आतंक को समझकर भारत के प्रस्ताव का साथ देना चाहिए था।


नाराजगी की चिंता ज्यादा


ची न यह बात अच्छी तरह से समझता है कि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक प्रतिनिधियों के अलावा उसकी सेना है जो पड़ोसियों से संबंध कैसे हों, इस मामले में पूरा-पूरा दखल रखती है। इसके अलावा पाकिस्तान में सेना के अतिरिक्त बहुत से स्वतंत्र आतंकी संगठन भी हैं और चीन किसी भी ऐसे संगठन या ताकत को नाराज करके नहीं चलना चाहता जो पाकिस्तान में उसके हितों को नुकसान पहुंचाएं।

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