scriptउच्च शिक्षा में तदर्थवाद | Higher education and society needs | Patrika News

उच्च शिक्षा में तदर्थवाद

Published: Jun 16, 2018 10:14:50 am

हर विश्वविद्यालय के लिए यह जरूरी है कि तदर्थ शिक्षक कम से कम हों और समय-समय पर उन्हें नियमित किया जाता रहे।

UGC,opinion,work and life,rajasthan patrika article,

indian students in college

– आर.के. सिन्हा, राज्यसभा सदस्य

अब देशभर के कॉलेजों में नए सत्र के लिए विद्यार्थियों के दाखिले की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। प्रमुख विश्वविद्यालयों के नामवर कॉलेजों में दाखिला लेने के लिए जबरदस्त मारामारी हो रही है। 90 फीसदी से अधिक अंक लेने वाले मेधावी छात्र-छात्राओं को भी यकीन नहीं हो रहा है कि उन्हें उनकी पसंद के कॉलेज और विषय में दाखिला मिल ही जाएगा। यह तो तस्वीर का एक पक्ष है। दूसरा पक्ष तो और भी खराब और भयावह है। उसे जानकर अंधकारमय भविष्य की चिंता होने लगती है।
दरअसल, देश के शीर्ष यानी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अध्यापकों के पद बड़ी संख्या में रिक्त हैं। हाल ही एक आरटीआइ से मिली जानकारी के अनुसार, 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अध्यापकों के 33 फीसदी पद खाली हैं। यह स्थिति बीते जनवरी माह तक की है। सबसे भयावह स्थिति इलाहाबाद और दिल्ली विश्वविद्यालयों की है, जहां क्रमश: लगभग 64 और 47 फीसदी पद भरे जाने हैं। यह स्थिति हमारे विश्वविद्यालयों फैली अराजकता और अव्यवस्था को दर्शाती है। जब विश्वविद्यालयों में अध्यापक ही नहीं होंगे तो पढ़ाएगा कौन? फिर दाखिले के लिए कड़ी मशक्कत का भी क्या मतलब?
अध्यापकों की कमी को पूरा करने के लिए विश्वविद्यालयों ने एक आसान और भ्रष्ट रास्ता चुना हुआ है, वह है तदर्थ यानी ‘एड हॉक’ नियुक्ति का। योग्यता से समझौता, कम पैसे देना और कभी भी निकाल देना केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अब आम होता जा रहा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जूनियर रिसर्च स्कॉलर भी कक्षाएं लेते हैं। उन्हें हर माह पढ़ाने के बदले में मात्र 30 हजार रुपए मानदेय मिलता है। यदि वे पढ़ाते रहेंगे तो क्या रिसर्च कर पाएंगे? दिल्ली विश्वविद्यालय में भी करीब 3,500 तदर्थ शिक्षक हैं। सभी साल दर साल पढ़ाते चले आ रहे हैं, स्थायी नौकरी की उम्मीद में। जबकि यहां स्थायी अध्यापकों की भर्तियां बीते एक दशक से लगभग बंद हैं।
तदर्थ शिक्षकों को चार माह के बाद कुछ दिन के अंतराल के बाद फिर से नियुक्त कर लिया जाता है। अंधकारमय भविष्य से जूझने के कारण अनेक अध्यापक अवसाद और तनाव में हैं। एक तरफ इनकी पगार बेहद कम है, दूसरी तरफ इन्हें किसी तरह के लाभ भी नहीं मिल रहे हैं, जैसे कि मातृत्व अवकाश, प्रॉविडेंट फंड, कर्मचारी बीमा आदि। इनकी नौकरी कॉलेज के प्रधानाचार्य या फिर विभागाध्यक्षों के रहमो-करम पर ही चलती है। यानी स्थायी सहकर्मी के समक्ष स्थायी अध्यापक की सारी योग्ताएं पूरी करने वाले व्यक्ति की कोई मान्यता ही नहीं है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्थायी अध्यापक डेढ़-दो लाख रुपए मासिक तक वेतन ले रहे हैं। उन्हें तमाम भत्ते और सुविधाएं भी मिल रही हैं। अब रिटायर हो रहे अध्यापकों को भी लगभग एक लाख रुपए तक की पेंशन मिलती है।
दरअसल, इन विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की तदर्थ नियुक्ति को बहाल रखने के पीछे मंशा यही दर्शाना है कि कक्षाएं सही ढंग से चल रही हैं। लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है। तदर्थ शिक्षक आर्थिक व मानसिक शोषण और अधिक काम के शिकार हो रहे हैं। इन विषम परिस्थितियों में किसी अध्यापक से अपना सर्वश्रेष्ठ देने की आशा कैसे की जा सकती है। जिस शख्स के सिर पर हर वक्त नौकरी जाने का खतरा मंडरा रहा हो, उससे आखिर क्या उम्मीद की जा सकती है?
किसी भी विश्वविद्यालय के लिए यह जरूरी है कि तदर्थ शिक्षक कम से कम हों और समय-समय पर उन्हें नियमित किया जाता रहे। उन्हें स्थायी अध्यापकों के बराबर वेतन और अन्य लाभ भी मिलें। यह सब तभी अर्थपूर्ण है जबकि सभी शिक्षक अपनी कक्षाएं नियमित रूप से लें। स्थायित्व के परिणाम यदि निष्क्रियता के रूप में सामने आते हैं तो शिक्षकों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई भी होनी ही चाहिए।
दुर्भाग्यवश विश्वविद्यालयों के अनेक शिक्षक इस मानसिकता से ग्रस्त देखे जा रहे हैं कि स्थायी होने के बाद पढ़ाने की जरूरत ही नहीं है। उन्हें राजनीति और आंदोलन अधिक रुचिकर लगने लगते हैं। जबकि उन्हें अपने दायित्व का और बेहतर तरीके से निर्वहन करना चाहिए। लेकिन यह आम तौर पर होता नहीं है। आपको गिनती के ही ऐसे शिक्षक मिलेंगे जो स्थायी नौकरी के बाद भी गंभीर शोध कर रहे हों। इस मानसिकता पर कठोर प्रहार करने की आवश्यकता है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को चाहिए कि सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में लंबे समय से रिक्त पड़े पदों को भरने की दिशा में प्रभावी कदम उठाए। यों तो यूजीसी पर देश के तमाम सरकारी विश्वविद्यालयों के कामकाज से लेकर पाठ्यक्रम आदि पर नजर रखने और युवाओं के कॅरियर से खिलवाड़ कर रहे फर्जी विश्वविद्यालयों के खिलाफ कार्रवाई करने का दायित्व है, लेकिन वह भी बदइंतजामी का शिकार है। मौजूदा हालात से निपटने के लिए जरूरी है कि शीर्ष जिम्मेदार संस्था अंदरूनी बदलाव से देश में उच्च शिक्षा की जमीनी हकीकत को बदलने का आगाज करे।
loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो