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भरोसे पर खरा उतर रही है हिन्दी पत्रकारिता

locationनई दिल्लीPublished: May 29, 2020 12:07:55 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

हिन्दी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेषभारत-पाक युद्ध का उल्लेख करें अथवा भारत-चीन लड़ाई का या फिर इस समय चल रही कोरोना से जंग के कठिन दौर का, हर मौके पर प्रेस ने अपनी महत्ता सिद्ध की है। यह कहना भी गलत न होगा कि इसमें हिन्दी पत्रकारिता का स्थान सर्वोपरि रहा है।

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हिन्दी पत्रकारिता के 194 वर्षों के इतिहास में समय के साथ पत्रकारिता के मायने और उद्देश्य बदलते रहे हैं किन्तु उसके बावजूद सुखद स्थिति यह है कि हिन्दी पत्रकारिता के पाठकों या दर्शकों की रूचि में कोई कमी नहीं आई। यह अलग बात है कि अंग्रेजी मीडिया और उससे जुड़े कुछ पत्रकारों ने भले ही हिन्दी पत्रकारिता की उपेक्षा करते हुए सदैव उसकी प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता पर सवाल उठाने की कोशिशें की हैं किन्तु वास्तविकता यही है कि पिछले कुछ दशकों में हिन्दी पत्रकारिता ने अपनी ताकत का बखूबी अहसास कराया है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उसकी विश्वसनीयता बढ़ी है। यह हिन्दी पत्रकारिता की बढ़ती ताकत का ही नतीजा है कि कुछ हिन्दी अखबारों ने अनेक संस्करणों के साथ प्रसार संख्या के मामले में कुछ अंग्रेजी अखबारों को भी पीछे छोड़ दिया है।
भारत-पाक युद्ध का उल्लेख करें अथवा भारत-चीन लड़ाई का या फिर इस समय चल रही कोरोना से जंग के कठिन दौर का, हर मौके पर प्रेस ने अपनी महत्ता सिद्ध की है और कहना गलत न होगा कि इसमें हिन्दी पत्रकारिता का स्थान सर्वोपरि रहा है। चाहे हिन्दी भाषी टीवी चैनलों की बात हो या हिन्दी के समाचारपत्र अथवा पत्रिकाओं की, उनका देश की बहुसंख्यक आबादी के साथ विशेष जुड़ाव रहा है और इस दृष्टि से राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं विकास की दिशा में हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हालांकि कोरोना संकट के इस दौर में संसाधन अत्यंत सीमित हो जाने के कारण लगभग सभी समाचारपत्रों को पृष्ठों में कटौती करने पर विवश होना पड़ा है लेकिन फिर भी पूरे साहस और जोश से प्रामाणिक समाचारों के साथ समाचारपत्र निरन्तर प्रकाशित और प्रसारित हो रहे हैं।
हिन्दी पत्रकारिता की शुरूआत 30 मई 1826 को कानपुर निवासी पं. युगुल किशोर शुक्ल द्वारा प्रथम हिन्दी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन के साथ हुई थी, जिसका अर्थ था ‘समाचार सूर्य’। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में कई समाचारपत्र निकल रहे थे किन्तु हिन्दी का पहला समाचारपत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ 30 मई 1826 को कलकत्ता से पहली बार प्रकाशित हुआ था, जो साप्ताहिक के रूप में आरंभ किया गया था। पहली बार उसकी केवल 500 प्रतियां ही छापी गई थी लेकिन चूंकि कलकत्ता में हिन्दी भाषियों की संख्या काफी कम थी और इसके पाठक कलकत्ता से बहुत दूर के भी होते थे, इसीलिए संसाधनों की कमी के कारण यह लंबे समय तक प्रकाशित नहीं हो पाया। 4 दिसम्बर 1826 से ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन बंद कर दिया गया लेकिन इस समाचारपत्र के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी पत्रकारिता की ऐसी नींव रखी जा चुकी थी कि उसके बाद से हिन्दी पत्रकारिता ने अनेक आयाम स्थापित किए हैं। ‘उदन्त मार्तण्ड’ के बाद अंग्रेजी शासनकाल में अनेक हिन्दी समाचारपत्र व पत्रिकाएं एक मिशन के रूप में निकलते गए किन्तु ब्रिटिश शासनकाल की ज्यादतियों के चलते उन्हें लंबे समय तक चलाते रहना बड़ा मुश्किल था, फिर भी कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने सराहनीय सफर तय किया। अब परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं और हिन्दी पत्रकारिता भी मिशन न रहकर एक बड़ा व्यवसाय बन गई है किन्तु अच्छी बात यह है कि आज भी हिन्दी पाठक व दर्शक अपनी-अपनी पसंद के अखबारों व चैनलों के साथ पूरी शिद्दत से जुड़े है।
बहरहाल, घर बैठे-बैठे दुनिया की सैर कराने की बात हो या देश-विदेश की हर छोटी-बड़ी हलचल से लेकर तमाम दहकते मुद्दों और हर प्रकार की नवीनतम जानकारियों को जुटाकर अपने पाठकों या दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने की, व्यवसायीकरण के आरोपों या तमाम विरोधाभासों के बावजूद हिन्दी पत्रकारिता यह काम बखूबी कर रही है और आमजन के भरोसे पर खरा उतरते हुए हिन्दी पत्रकारिता आज आम जनजीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। अधिकांश हिन्दी समाचारपत्रों के अब ऑनलाइन संस्करण उपलब्ध हैं। विगत कुछ वर्षों में देश में बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश करके अनेक सफेदपोशों के चेहरों पर पड़े नकाब उतार फैंकने का श्रेय भी पत्रकारिता जगत को ही जाता है, जिसमें हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को भी किसी भी लिहाज से कम करके नहीं आंका जा सकता।
बहरहाल, अगर राष्ट्रीय अखण्डता के संदर्भ में पत्रकारिता की भूमिका की बात करें तो लोकतंत्र के अन्य स्तम्भों के मुकाबले प्रेस की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि विश्वभर में भारत की प्रतिष्ठा के जो तीन प्रमुख कारण माने गए हैं, वे हैं जागरूक मतदाता, स्वतंत्र न्यायपालिका व स्वतंत्र प्रेस। इनमें लोकतंत्र के अन्य दो सबसे महत्वपूर्ण समझे जाने वाले स्तम्भों विधायिका और कार्यपालिका का कहीं नाम तक नहीं आता। भारत में प्रेस को जनता की एक ऐसी ‘संसद’ की उपाधि दी गई है, जिसका कभी सत्रावसान नहीं होता और जो सदैव जनता के लिए ही कार्य करती है। इसे समाज में परिवर्तन लाने का अथवा उसे जागृत करने के लिए जन संचार का एक सशक्त माध्यम माना गया है। प्रेस को समाज की चिंतन प्रक्रिया का एक ऐसा अनिवार्य तत्व माना गया है, जो उसे दिशा व गति देने में सक्षम हो। इसे जनता की ऐसी आंख माना गया है, जो सभी पर अपनी पैनी और निष्पक्ष दृष्टि रखे। प्रेस को जनता की उंगली माना गया है, जो गलत कार्यों के विरोध में स्वतः ही उठ जाती है। प्रेस को समाज के प्रति पूर्ण समर्पण के रूप में देखा जाता है। इसे केवल एक पेशा न मानकर जनसेवा का सबसे बड़ा माध्यम माना गया है।
पूर्व राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा के शब्दों में कहें तो प्रेस पर लोकतांत्रिक परम्पराओं की रक्षा करने और शांति व भाईचारा बढ़ाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। जहां तक राष्ट्रीय अखंडता में प्रेस की भूमिका और इसके दायित्वों का प्रश्न है तो प्रेस के निम्नलिखित प्रमुख दायित्व माने गए हैं:- कानून व्यवस्था की खामियों को प्रकाशित-प्रसारित करना, अपने प्रयासों से शासन को सुव्यवस्थित करना व लोक हितकारी बनाना, पथभ्रष्टों को सन्मार्ग पर लाना, भ्रष्ट तंत्र को चौकन्ना बनाना, असामाजिक तत्वों पर कड़ी नजर रखना, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में पर्दे की ओट में होने वाले दुष्कृत्यों, अत्याचारों व अन्याय का जनहित में पर्दाफाश करना, समाज व मानवता के गुनाहगार चेहरों पर पड़े नकाब नोचकर जनता के सामने लाना, निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए धार्मिकता एवं राजनीति की आड़ लेने वालों के राज पर्दाफाश करना, समाज में स्वस्थ मानक स्थापित करना, लोक चेतना जागृत करना आदि।

देशभर में नैतिक मूल्यों में बड़ी गिरावट आई है और राजनीतिज्ञों, विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायिक व्यवस्था पर से लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है, वहीं पत्रकारिता भी इस नैतिक पतन का शिकार होने से नहीं बची है। फिर भी इतना संतोष तो किया ही जा सकता है कि इसने इसके बावजूद अधिकांश अवसरों पर सराहनीय भूमिका निभाई है।
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