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माल्या जैसे कर्जदार बनाती है सरकार (परंजॉय  गुहा ठाकुरता)

Published: Oct 06, 2016 11:33:00 pm

सरकार ने सरकारी बैंकों को बड़े कर्जदारों के प्रति नरमी बरतने और
उन्हें भुगतान में दिक्कत आने पर सहूलियत देने की बात कही है। विजय माल्या
प्रकरण हमारे सामने है उसके बावजूद सरकार द्वारा कर्जदार पूंजीपतियों को
सहूलियत की बात बैंकिग प्रणाली पर गहरे सवाल खड़े करती है।

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भारतीय बैंकिंग इस समय एनपीए (नॉन परफॉॢमंग एसेट्स) की समस्या से जूझ रही है। सरकारी बैंकों में यह समस्या सबसे ज्यादा है और बैंक इससे निपटने के लिए प्रयासरत भी हैं। ऐसे समय सरकार का बैंकों को बड़े कर्जदारों के प्रति नरमी बरतने के लिए कहना चिंताजनक है। सरकार ने बैंको से कहा है कि बड़े कर्जदारों को अगर भुगतान में कुछ दिक्कत हो रही है तो उन्हें सहूलियतें दी जाएं।

इसके साथ ही उनके कई प्रोजेक्ट्स जो बैंकों को व्यावहारिक लगते हों उनके लिए क्रेडिट लिमिट बढ़ाकर उनकी मदद करें। मेरा मानना है कि सरकार को इन बड़े कर्जदारों की ऐसी मदद नहीं करनी चाहिए। एक विजय माल्या तो देश से भाग गया और सरकार व बैंक कुछ नहीं कर पाए लेकिन अभी भी 25-30 विजय माल्या देश में मौजूद हैं। देश के बड़े पूंजीपतियों द्वारा कर्ज ेलेकर लौटाते वक्त उसमें छूट लेना या उसे माफ करवाना अरसे से होता रहा है।

विवाद होने पर ऐसे कई मामले अदालतों में पहुंचने के बाद बरसों तक अटके रहते हैं। आम आदमी अगर बैंक से कर्ज लेता है तो अधिकांश वापस दे देते हैं। वह गैर-जरूरी कार्य के लिए कर्ज नहीं लेता और नियम- कानूनों का पालन करता है। अगर किसी वजह से कर्ज वापस नहीं कर पाए तो बैंक उसे परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। अगर किसी ने घर या वाहन के लिए कर्ज लिया है और कारणवश नहीं चुका पा रहा है तो उसका घर/वाहन छीन लिया जाता है। लेकिन रसूखदार, पूंजीपतियों के साथ ऐसा नहीं होता है।

बैंकों के फंसे हुए ज्यादातर कर्ज बड़े ऋण हैं और बड़े उद्योगपतियों के हैं। इन उद्योपतियों का देश के राजनेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध है। नेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध के चलते ही इनके कर्ज माफ कर हो जाते हैं और बैंक के अधिकारी भी इनके खिलाफ कार्रवाई नहीं करते। सार्वजनिक रूप से कार्रवाई दिखाने के लिए दो-चार छोटे कर्जदारों के खिलाफ कार्रवाई कर दी जाती है।

वास्तविकता में तो बैंकों को घोटाला करने वाले लोगों को कर्ज नहीं देना चाहिए लेकिन इनके पक्ष में तर्क दिए जाने लगते हैं कि ऐसे कदम से बैंकों का मुनाफा कम हो जाएगा, बैंकों की प्रॉपर्टी खराब हो जाएगी और उनकी साख गिरेगी। अब एक ऐसा भी प्रस्ताव चल रहा है कि एक ऐसी संस्था बनाई जाए जो पुराने कर्ज की वापसी के लिए कार्य करे। सरकारी बैंकों में देखें तो सबसे ज्यादा भारतीय स्टेट बैंक का कर्ज फंसा हुआ है।

सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) को इनकी वापसी के लिए रास्ता दिखाना चाहिए। इसमें आरबीआई और सरकार कितनी सफल हो पाएगी यह तो आने वाले समय में ही पता चल पाएगा लेकिन मैं इसको लेकर ज्यादा आशावादी नहीं हूं। दरअसल, मौजूदा व्यवस्था में सरकार के बड़े अधिकारी, बड़े पूंजीपति और बड़े राजनेताओं का एक गठबंधन बन गया है। ये लोग एक-दूसरे को बचाने की कोशिश करते हैं।

यह एक बड़ी समस्या बन गई है। चाहे यूपीए सरकार हो या एनडीए की सरकार। इन नेताओं का दलीय राजनीति से परे गठबंधन बना रहता है। किसानों का कर्ज अगर माफ कर दिया जाता है तो आर्थिक तरक्की सुझाने वाले लोग कहने लग जाते हैं कि बड़ा गलत काम किया है, इससे अर्थव्यवस्था बिगड़ जाएगी। यदि दो-चार कंपनियों का कर्ज माफ कर दिया जाता है तो करोड़ों रुपए के अन्य कर्ज डूबने की आशंका बढ़ जाती है।

सवाल यह है कि क्या इस देश में आम नागरिकों के लिए सारे नियम-कायदे काम करते हैं, अमीरों के लिए नहीं? बड़े पूंजीपति कर्ज वापस क्यों नहीं दे सकते? इस स्थिति को बदलना जरूरी है। इन पूंजीपतियों के खिलाफ आम आदमी की आवाज बुलंद होना जरूरी है। सरकारी बैंकों से कर्ज लेकर उसको न चुकाना एक तरह का अपराध है। खुलेआम हो रहे इस अपराध के खिलाफ हमें एकजुट होना होगा।

अब ऐसे पूंजीपति राजनीति में भी आ रहे हैं जिन पर बैंको का भारी कर्ज है। देश के नेता इनसे गठबंधन बनाकर इसलिए चलते हैं क्योंकि चुनाव लडऩे के लिए पैसा ऐसे लोग ही देते हैं। पैसे से राजनीति और राजनीति से पैसे का खेल चल रहा है। हाल ही में सरकार की चलाई कालेधन को सफेद करने की योजना के तहत सरकार को 62 हजार करोड़ का कालाधन प्राप्त हुआ है। यह कालाधन कहां से आता है? यह कालाधन ऐसे ही एक-दूसरे को फायदा पहुंचाकर बनाया जाता है। यह तबका एक-दूसरे की समय-समय पर मदद करता रहता है।

सरकार अरसे से कालेधन को सफेद धन में बदलने की योजनाएं लाती रहती हैं और कालाधन, सफेद धन में बदलता रहता है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार किस दल की है या किस गठबंधन की है। ऐसे मामलों में सरकार की नीतियों में कोई अंतर नहीं रहता है। पूंजीपतियों की मदद के लिए सभी सरकारें एक जैसी रहती हैं। जब तक ऐसी नीतियों का विरोध नहीं होगा तब तक इन पूंजीपति, अधिकारियों और नेताओं का गठबंधन चलता रहेगा और सरकारी नीतियों को बदलना संभव नहीं हो पाएगा। (पत्रिका से बातचीत पर आधारित)

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