संसद का
मानसून आज से शुरू हो रहा है। दूसरे सत्रों की तुलना में ये हटकर होगा। विधायी कार्य के साथ-साथ 19 दिन के इस सत्र में राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होगा। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और उप राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी की विदाई और नये राष्ट्रपति व उप राष्ट्रपति का स्वागत भी इसी
मानसून में होना है।
वैसे तो
मानसून हो या बजट सत्र, हो-हल्ले के सिवाय कुछ होता ही नहीं। आसार भले कम हों लेकिन देश इस सत्र से उम्मीद तो कर ही सकता है कि इसमें अधिक से अधिक विधायी कार्य हों। संसद किसान आंदोलन, कश्मीर समस्या के साथ-साथ चीन और पाकिस्तान से बढ़ते तनाव पर भी चर्चा करे और हल निकालने की दिशा में भी ठोस सुझाव दे। संसद है ही इसके लिए। सार्थक बहस के साथ-साथ समस्याओं के निदान के मंच के रूप में इसकी पहचान होनी चाहिए।
आजादी के बाद कुछ वर्षों तक संसद अपनी भूमिका में खरी भी उतरती रही। पक्ष-विपक्ष के बीच तीखी तकरार के बावजूद संसद अपनी पहचान और गरिमा बनाए रखने में कामयाब रही। लेकिन बीते कुछ वर्षों से संसद, संसद कम और राजनीतिक दलों का अखाड़ा अधिक नजर आने लगी है।
बहस का स्थान बहिर्गमन ने ले लिया है तो हंगामा और शोरगुल इसके स्थायी अंग बन चुके हैं। अब तो लगता यही है कि मानसून, बजट और शीतकालीन सत्र महज संसदीय खानापूर्ति के लिए ही बुलाए जाते हैं। सांसद सत्ता पक्ष के हों अथवा विपक्ष के मुद्दों पर तैयारी करते ही नहीं। बहस का स्तर लगातार गिरता जा रहा है।
सदन के भीतर कोरम तक के लाले पडऩे लगे हैं। सत्ता पक्ष के सांसद भी बहस में भाग नहीं लेते। संसद में कार्य दिवस की संख्या तो घट ही रही है, विधायी कार्य भी दिखावे का रह गया है। प्रत्येक राजनीतिक दल संसद को गंभीरता से लेता ही नहीं। सांसदों की सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं। वे जनसेवक न रहकर उनके मालिक की तरह व्यवहार करने लगे हैं।
अच्छे सांसद हैं भी तो अल्पमत में नजर आते हैं। देश उम्मीद कर सकता है कि संसद का ये
मानसून पुरानी कड़वी यादों को मिटाकर नई शुरुआत करेगा। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति सड़क तक ही सीमित रहे और संसद में वह कार्य हो जिसके लिए इसका गठन हुआ था। ऐसा करना मुश्किल नहीं है। जरूरत है तो संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठने की।