इन चूकों पर उठ रहे सवालों के बीच बड़ा सवाल परीक्षा के दिन नेटबंदी का भी है। उपभोक्ताओं के विरोध को दरकिनार कर तथा कोर्ट के यह कहने के बावजूद कि नेट भी मौलिक अधिकारों की तरह है, सरकारों को नेटबंदी सबसे आसान और कारगर तरीका लगता है। नेटबंदी उपभोक्ताओं के हितों पर सीधा कुठाराघात है। एक दिन नेट बंद रहने से उपभोक्ताओं का डेटा बिना उपयोग में ही आए व्यर्थ चला गया। इसका जिम्मेदार कौन? वैसे ऑनलाइन पर निर्भरता बढऩे के कारण नेटबंदी करना दोहरा नुकसान है। यह आम उपभोक्ताओं को तो प्रभावित करता ही है, इससे बहुत तरह के काम भी ठप हो जाते हैं। एक मोटे अनुमान की तरह नेटबंदी से एक साल में ही करोड़ों रुपए का नुकसान हो जाता है।
बहरहाल, जिस तरह नकल गिरोह हाई-टेक हो रहे हैं। नकल के नित नए तरीके खोजे जा रहे हैं, उसको देखते हुए सरकार को भी नकल पर कारगर अंकुश के लिए अलग तरीके खोजने होंगे। नेटबंदी के बावजूद जब नकल प्रकरणों पर रोक नहीं लगती है, तो इसका समाधान खोजना और भी जरूरी हो जाता है। वैसे इंटरनेट के युग में लगभग हर आदमी नेट पर आश्रित है। इसलिए सरकार का नेटबंदी का निर्णय बेहद अखरता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि रीट अभ्यर्थियों के लिए नि:शुल्क रोडवेज बस चलाकर सरकार ने सहानुभूति बटोरने का प्रयास किया, लेकिन क्या मोबाइल उपभोक्ताओं को कोई राहत नहीं दी जा सकती थी? खैर, प्रदेश सरकार को नेटबंदी के मामले में देश के अन्य राज्यों के हालात को देखते हुए उनसे सीख जरूर लेनी चाहिए। नेटबंदी ही समस्या का इलाज नहीं है। (म.सिं.)