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रूस कैसे बना रहे भारत का भरोसेमंद मित्र ?

locationनई दिल्लीPublished: Jul 12, 2020 04:10:58 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

रूस और चीन के बीच मजबूत होते संबंधों के बीच कौटिल्य कि इस कूटनीतिक सीख को याद रखने की जरूरत है कि शत्रुओं के प्रयत्नों की समीक्षा करते रहना चाहिए।

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रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन।

डॉ.ब्रह्मदीप अलूने, विदेश मामलों के जानकार


अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का यथार्थवादी सिद्धांत यह कहता है कि किसी संप्रभु राष्ट्र के लिए शक्ति,शक्ति संतुलन,राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसी संकल्पनाएं महत्वपूर्ण है और राष्ट्र की सुरक्षा उसका स्वयं का दायित्व है। दरअसल सीमा पर चीन की लगातार चुनौतियों से उत्पन्न हुई परिस्थितियां भारत के वैदेशिक सम्बन्धों को नये सिरे से परिभाषित कर रही है और इसका प्रभाव आने वाले समय में देखने को मिल सकता है।

यह देखने में आया है कि भारत की विदेश नीति आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच मार्ग बनाती रही है,यही कारण है कि गुटनिरपेक्ष भारत ने सोवियत संघ से 1971 में सुरक्षा संधि करने का साहस दिखाया था और इसके दूरगामी और बेहतर परिणाम भी हुए। वैश्विक मंच पर महाशक्तियों ने भारत पर जब भी दबाव बनाने की कोशिश की,रूस अधिकांश समय ढाल बनकर भारत का पक्ष मजबूत करता रहा। लेकिन भारत और चीन के बीच विवाद के समय रूस की भूमिका अक्सर मौन धारण करने वाली रही है और भारत की सामरिक सुरक्षा के लिए यह बेहद चुनौतीपूर्ण रहा है।

चीन और भारत के बीच सीमा पर हिंसक संघर्ष के बाद युद्ध जैसी स्थितियों में भारत के परंपरागत मित्र रूस ने ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं की जिसकी उससे अपेक्षा की जाती है। 2014 में जब प्रधानमंत्री मोदी और रुस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की मुलाकात हुई थी तो नरेन्द्र मोदी का एक जुमला बडा चर्चित हुआ था और वो यह था कि भारत में बच्चा भी जानता है कि रुस भारत का सबसे अच्छा दोस्त है।

भारत के सबसे बड़े सामरिक दोस्त रूस पर भारत का भरोसा संकटकाल में बहुत ज्यादा बढ़ जाता है और वैश्विक मंच पर रूस ने उस भरोसे को समय समय पर बढ़ाया भी है। लेकिन चीन को लेकर स्थितियाँ भयानक रूप से बदल जाती है। 1962 के भारत चीन युद्द में रूस के सर्वोच्च नेता खुश्चेव ने भारत को लड़ाकू विमानों की खेप भेजने में देरी करके अप्रत्यक्ष रूप से चीन की मदद की थी।
इस समय यह माना गया कि रूस यह मानता है कि भारत उसका दोस्त है लेकिन चीन उसका छोटा भाई है। यह भी बेहद दिलचस्प है कि यह वह दौर था जब चीन,तत्कालीन सोवियत संघ को अपना पारंपरिक शत्रु बताता रहता था और यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी की रूस भारत की कीमत पर चीन को मदद दे सकता है। भारत से युद्द के बाद चीन का 1969 में आमूर और उसुरी नदी के तट पर रूस से युद्द हुआ था और रूस की परमाणु हमलें की धमकी के बाद चीन ने वहां से कदम पीछे खींच लिए थे। लेकिन 1991 में सोवियत संघ के विघटन और वैश्वीकरण की नीति के बाद वैश्विक परिस्थितियां बदलने के साथ चीन का आर्थिक दबदबा बढ़ा और उसे रूस पर बढ़त हासिल हो गई। इसी का प्रभाव है कि चीन का रूस से सीमा विवाद लगभग समाप्त हो चुका है।
2004 में रूस और चीन के बीच हुए समझौते में सेंट्रल एशिया के कई द्वीपों को रूस ने चीन को सौंप दिया था। इस समय चीन और रूस आर्थिक साझेदारी को लगातार बढ़ा रहे है,चीन रूस से गैस और हथियार खरीद रहा है,वहीं चीन की कई कम्पनियाँ रूस में बड़े पैमाने पर निर्माण में मदद कर रही है। दुनिया के सबसे बड़े आर्थिक गलियारे ‘वन बेल्ट-वन रोड’ परियोजना को लेकर 2017 में चीन में द्वारा आयोजित शिखर सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन शामिल हुए जबकि भारत ने इसके मार्ग को विवादित बताकर इस सम्मेलन का बहिष्कार किया। ग़ौरतलब है कि पाकिस्तान और चीन के बीच सीपीईसी और कारा कोरम हाइवे का जो संबंध है उसमें भारत का विरोध है। भारत का विरोध इसलिए है कि चीन ने बिना भारत की अनुमति के पीओके से रास्ता निकाल दिया,जबकि यह इलाक़ा भारत के अंतर्गत आता है।

पिछले एक दशक में चीन ने दक्षिण चीन सागर में चीन ने अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए आक्रामक नीति का सहारा लिया है,अमेरिका समेत हिन्द महासागर के तटीय देशों से चीन के सम्बन्ध बेहद खराब है,अमेरिका और चीन के बीच ट्रेड वॉर हो या अन्य विवादित मुद्दे,रूस को कभी भी चीन का विरोध करते नहीं देखा गया। उत्तर कोरिया और ईरान जैसे मुद्दों पर भी रूस और चीन के एक सुर देखने को मिले। यहाँ तक कि कोविड-19 को लेकर चीन पर वैश्विक शिकंजे के बीच रूस ने अमेरिका को नसीहत दे डाली की वह बिना सबूत के चीन पर दबाव बनाने की कोशिश न करें।

वहीं चीन को लेकर भारत विरोध में अमेरिका ने मजबूती से भारत का साथ दिया है ।1962 के युद्द में भी अमेरिका ने अपने युद्दक विमानों को भारत की मदद के लिए भेजने का विश्वास दिलाकर चीन पर ऐसा मनोवैज्ञानिक दबाव डाला कि वह युद्द से पीछे हटने को मजबूर हो गया था। हाल के भारत चीन सीमा तनाव के बीच अमेरिकी प्रशासन ने भारत के कदमों की सराहना करते हुए चीन की आलोचना की।

वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में न तो कोई स्थाई मित्र होता है और न ही कोई स्थाई शत्रु होता है। 1991 में सोवियत संघ के विघटन और उदारीकरण की शुरुआत ने विश्व को एक ध्रुवीय किया तथा एक बाजार के रुप में भारत की पहचान बनी। अपने आर्थिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अमेरिका का भारत को गले लगाना लाजमी था और आज वह भारत का सबसे विश्वसनीय मित्र कहा जाता है,इतना विश्वसनीय कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा को दुनिया मिस्टर ओबामा कहती थी जबकि भारतीय प्रधानमंत्री ने उन्हें बराक कहने में भी संकोच नहीं किया।
बदली हुई वैश्विक परिस्थितियों का प्रभाव रूस और भारत के सम्बन्धों पर भी पड़ा है। पिछले कुछ वर्षों में भारत ने लडाकू विमान खरीदने में फ्रांस,अमेरिका और इजराईल से समझौते किए है। भारत का रूस सबसे बड़ा सामरिक साझेदार है अत: भारत के अन्य देशों से रक्षा समझौतों को उसके लिए बडा नुकसान माना गया। इस बीच रूस ने चीन के साथ ही पाकिस्तान से सामरिक सहयोग करने में दिलचस्पी दिखाई और पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष और नेताओं ने रुस की लगातार यात्राएं भी की। इस प्रकार रूस का हथियारों की बिक्री को लेकर व्यवसायिक दृष्टिकोण सामने आ रहा है।

रुस हमारा पुराना मित्र और बडा सहयोगी रहा है,वह सेन्ट्रल एशिया का सबसे बडा खिलाडी है। हमारे दुश्मन चीन की सीमाएं रुस को छूती है। पाकिस्तान की सीमा से भी रुस दूर नहीं है,ऐसे में रुस से हमारी मित्रता सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। वहीं रूस और चीन के बीच मजबूत होते संबंधों के बीच कौटिल्य कि इस कूटनीतिक सीख को याद रखने की जरूरत है कि शत्रुओं के प्रयत्नों की समीक्षा करते रहना चाहिए। चीन और पाकिस्तान ने रूस से मजबूत सम्बन्ध करके भारत-रूस सम्बन्धों की विश्वसनीयता को प्रभावित किया है। जबकि दक्षिण एशिया और हिमालय में मिलने वाली चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए भारत को मजबूत मित्र की जरूरत रही है।

स्पष्ट है कि रूस के मुकाबले चीन को लेकर अमेरिकी मुखरता भारत की जरूरत बन गई है। चीन को दबाने के लिए भारत को कुछ ज्यादा और आक्रामक कदम उठाने की जरूरत है और इसमें उसे अमेरिकी की मदद मिल सकती है। भारत को वन चाईना नीति को चुनौती देते हुए हांगकांग में लोकतंत्र की बहाली की मांग करना चाहिए,वहीं ताईवान को अलग से वीजा और तिब्बत की स्वायतता का समर्थन करना चाहिए। जाहिर है इन मुद्दों पर भारत और अमेरिका मिलकर चीन को घेर सकते है,चीन पर दबाव डालने के लिए भारत की विदेश नीति में यथार्थवादी बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है।
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