आम तौर पर संपन्न राज्य पंजाब के लिए नशा नई चीज नहीं है। गाहे-बगाहे रोजगार देने के झुनझुने और तमाम दूसरे उपायों के बल पर नशे के काराबोर पर पाबंदी लगाने का दावा कर यहां की राजनीति उड़ान भरती रही है। ऐसे में गरीब-गुरबों का नशा माने जाने वाली सस्ती शराब यहां मौत का ऐसा ताडंव करेगी, इसका अहसास हुक्मरानों तो छोड़िए, यहां की जनता को भी नहीं रहा होगा। यही वजह है कि हाल में पंजाब के कई जिलों में जहरीली शराब की चपेट में आकर हुई 90 मौतों को जनता भी समझ नहीं पा रही है।
जहरीली शराब ज्यादातर मामलों में गरीब, पिछड़े और उपेक्षित इलाकों में ही कहर बरपाने को बदनाम रही है। पंजाब कोई गरीब स्टेट नहीं है। लेकिन कोरोना के कहर के कारण लंबे लॉकडाउन और आधे-अधूरे अनलॉक की प्रक्रिया में पंजाब में भी ठप्प काम-धंधे और रोजी-रोजी की चिंता लोगों को अवसाद से घेरने लगी है। यह हादसा बताता है कि पंजाब के लोगों के भी हाथ तंग हो चले हैं। ऐसे में वे अपने गम को हल्का करने के लिए अब सस्ती शराब का आसरा खोज रहे हैं। सरकारों को इसकी चिंता तो है कि कोरोना काल में किसी तरह उनका खजाना भरे और कर्मचारियों के वेतन से लेकर सरकारी योजनाओं को जारी रखने का सिलसिला बने। लेकिन इस चिंता में उन्होंने ब्रांडेड लेबल वाली शराबों को टैक्सों से महंगा कर दिया है। समस्या का दूसरा सिरा इससे जुड़ा है कि विदेशी शराब को महंगा करते वक्त सरकार भूल गई कि अगर लोग सरकारी ठेकों की बजाय सामान्य परचून की दुकानों और ढाबों आदि पर बिकने वाली ऐसी सस्ती देसी शराब की शरण में गए जो जहरीली भी हो सकती है, तो क्या होगा। असल में सरकारों को यह अहसास कभी नहीं रहा कि वह सस्ती शराब की गुणवत्ता तय करने वाली ब्रांडिंग-लेबलिंग का चलन शुरू कर सकती है, ताकि लोग शराब के नाम पर जहर से अपनी थकान मिटाने का जतन न करने लगें।
वैसे भी देसी शराब का यह धंधा पुलिस और आबकारी विभागों की मिलीभगत से चलने वाले शराब माफियाओं के लंबे-चौड़े नेटवर्क की देन है। ऐसे में इसकी निगरानी से जुड़े सिस्टम का हर पुर्जा इसे देखकर भी तब तक अनजान बना रहता है, जब तक कि कोई बड़ा हादसा न हो जाए। शहरों की बजाय गांव-देहात में जहरीली शराब से होने वाले हादसों को देखकर एक अहम सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसे कौन से शराब माफिया हैं, जिनका काला कारोबार सैकड़ों किलोमीटर के इलाके में विभिन्न सरकारों और तंत्र के बावजूद समान रूप से फैला हुआ है। आखिर यह माफिया इतने बड़े इलाके में लोगों को सस्ती, लेकिन गैरकानूनी शराब कहां से और कैसे मुहैया करा पाता है। इतने बड़े पैमाने पर अगर शराब माफिया घटिया और जहरीली शराब बेच पाने में कामयाब हो रहे हैं, तो इससे साफ है कि पुलिस और आबकारी विभाग के कारिंदों की रिश्वतखोरी और पैसे-रसूख के बल पर हासिल राजनीतिक संरक्षण के चलते यह नेटवर्क जैसे चाहे, जहां चाहे शराब खपाने में समर्थ साबित हो रहा है। इसका यह निष्कर्ष भी निकलता है कि हमारा पूरा सिस्टम और खास तौर से हमारी सरकारें शराब के जहर से होने वाली मौतों को तात्कालिकता से ऊपर उठकर नहीं देख पाती हैं, अन्यथा समस्या का ठोस निदान न जाने कब का हो चुका होता। इसकी बजाय वे या तो इस पर पाबंदी का तात्कालिक उपाय करती हैं या फिर चंद रोज तक कुछ लोगों की धरपकड़ और जांच-कमेटियों का नाटक करती हैं।
पश्चिमी देशों में तमाम उपभोक्ता सामानों की तरह शराब भी एक उत्पाद है, लिहाजा वहां इसकी गुणवत्ता, कीमत आदि चीजों की निगरानी खान-पान की दूसरी वस्तुओं की तरह होती है। जबकि हमारे देश में सरकारें इसे सामाजिक नैतिकता से जोड़कर देखती हैं। विडंबना यह है कि हमारा समाज भी इससे होने वाले हादसों को देखकर एक द्वंद्व में फंस जाता है और पूर्ण शराबबंदी जैसे उपायों की मांग कर बैठता है। यही वजह है कि देश के कई हिस्सों में शराबबंदी को लेकर महिलाओं तक ने आंदोलन चलाए हैं और इनके असर से गुजरात, बिहार, मिजोरम, नगालैंड, मणिपुर और लक्षद्वीप में सरकारों ने शराबबंदी कर रखी है। पर इस विडंबना का दूसरा छोर और भी चिंता में डालने वाला है। सच्चाई यह है कि तमाम प्रतिबंधों के बावजूद हमारे समाज में आधुनिकता के नाम पर शराब की स्वीकार्यता बढ़ी है। जिन परिवारों में कभी शराब का नाम लेना भी पाप समझा जाता था, वहां भी रोज शराब पीना आम होता जा रहा है।
ऐसा मालूम होता है कि शराबबंदी लागू करने और संकल्प लेने के पीछे परोक्ष भाव उपदेशात्मक है यानी लोग खुद शराब छोड़ दें या विदेशी शराब महंगे दामों पर खरीदें। इससे यह लग रहा है कि सिर्फ गरीबों को शराब से वंचित किया जा रहा है, जबकि अमीरों को विदेशी शराब पहले की तरह आसानी से मिलती रहेगी। यही वजह है कि इस उपाय के बारे में भी सोचा जाना चाहिए कि कमजोर तबके के गरीब लोगों को सस्ती और सुरक्षित शराब मिले और वे बेमौत न मरें।