न सामाजिकी के उम्मीदवार इस कसौटी पर खरे उतरे, न विज्ञान के। अंग्रेजी हो या हिन्दी, विषयों के नाम भी ठीक से नहीं लिख सकती दुनिया के सबसे नौजवान महान भारत की पीढ़ी। दुखद स्थिति है। शिक्षा में यह पतन रातों-रात नहीं हुआ। पिछले तीन दशक से यह हर क्षण हो रहा है। सरकारी स्कूलों को बंद कर प्राइवेट दुकानों की तरह स्कूल खोलने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है, लेकिन भूल रहे हैं कि निष्ठा और ईमानदारी के बिना न सरकार सफल होगी न प्राइवेट सेक्टर।
सोशल मीडिया पर अक्सर सामान्य ज्ञान के प्रश्नों पर शिक्षकों के जवाब हमें एक साथ रुला-हंसा जाते हैं। बीते दशकों में कोई दिन नहीं गया, जब केंद्र की मौजूदा और पिछली सरकारों ने शिक्षा की तस्वीर बदलने की बात न की हो, पर जमीन पर बरबादी बढ़ी ही है। क्या यह तस्वीर बदली नहीं जा सकती? बदलने की छोड़ो, पचास-साठ के दशक का स्तर भी हम क्यों कायम नहीं रख पाए?
इसी का अंजाम है कि गांधी जयंती के 150वें वर्ष में कॉलेज के बच्चों से राष्ट्रपिता के बारे में कोई प्रश्न पूछने पर पसरा सन्नाटा आपको पागल कर सकता है। क्या राष्ट्रगान, गीत, भारत माता के ढोल-शपथ-गुब्बारे शिक्षा के इस पहलू की भरपाई कर सकते हैं?
‘इंस्टीट्यूट ऑफ इमीनेंस’ नया जुमला है, शिक्षा में सुधार के नाम पर विदेशों से आयातित। पहले बीस संस्थानों की बात हुई, फिर छह पर टिकी। मगर प्रश्न है कि 700 विश्वविद्यालयों में भी न समा पाने वाली आबादी कैसे दस-बीस में समा पाएगी?
उससे भी बड़ा प्रश्न यह कि जब बुनियाद इतनी कमजोर हो कि विषयों के नाम भी न लिख पाएं, तो दुनिया के शीर्ष विश्वविद्यालय कैसे बनेंगे? यूरोप, अमरीका, कोरिया, जापान, चीन, सिंगापुर ने पहले गांधीजी के शब्दों में ‘अपनी भाषा में बुनियादी शिक्षा’ को मजबूत किया। दुनिया में नाम करने का ख्वाब देखने से पहले अपना नाम लिखना तो आना ही चाहिए।
(पूर्व संयुक्त सचिव, रेल मंत्रालय। शिक्षा-संस्कृति पर नियमित लेखन।)