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घरेलू हिंसा: अस्तित्व बचाने की पहल जरूरी

Published: Feb 06, 2017 03:53:00 pm

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ये आंकड़े यह बताते हैं कि स्त्री की अपने घर में प्रताड़ना सिर्फ विकासशील देशों की समस्या नहीं है अपितु विकसित देशों में भी यही स्थिति है।

जयपुर. बीते दिनों खबर आई कि लंदन के पॉटर्स फील्ड पार्क में उन महिलाओं के सिलुएट (प्रतिकृति) लगाई गईं हैं जो घरेलू हिंसा के चलते अपना जीवन खो चुकी हैं। पिछले छह साल में इंग्लैण्ड और वेल्स इलाके में 900 से ज्यादा महिलाओं को मारा जा चुका है। 
इनमें सभी की हत्याएं या तो उनके पति ने की या उनके साथियों ने। ये आंकड़े यह बताते हैं कि स्त्री की अपने घर में प्रताड़ना सिर्फ विकासशील देशों की समस्या नहीं है अपितु विकसित देशों में भी यही स्थिति है। 
घरेलू हिंसा के पीछे एक सीधा और स्पष्ट कारण है स्त्रियों के प्रति दोयम स्तर का दृष्टिकोण। देश काल की सीमाओं से परे घरेलू हिंसा, स्त्री-अस्तित्व का एक कटुसत्य बन चुका है। विश्वभर में लगभग 35 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हुई हैं। 
इस तथ्य के बावजूद कि विश्व में 119 देशों में घरेलू हिंसा के विरुद्ध कानून बने हुए हैं। स्पष्ट है कि कानून मात्र बना देने से, घरेलू हिंसा की मानसिकता में परिवर्तन नहीं आ सकता। विकसित और विकासशील देशों के घरेलू हिंसा आंकड़ों में थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है पर यह सभी जगह व्याप्त है। 
हमारी यह सोच भी निर्मूल हो जाती है कि घरेलू हिंसा की शिकार कम पढ़ी-लिखी और निर्धन महिलाएं होती हैं। विभिन्न शोध यह बताते हैं कि घरेलू हिंसा की दर शिक्षित और नौकरी पेशा महिलाओं में अधिक है। 
प्रश्न यह उठता है कि ऐसे कौन से कारण हैं कि महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। अब तक के अध्ययन इसका कारण घर के पुरुष सदस्यों का शराबी होना, पत्नी द्वारा उनकी अवहेलना करना या बच्चों की देखभाल में लापरवाही बरतना आदि मानते हैं। पर क्या इससे इतर कुछ और भी है जिस पर विचार करने की जरूरत है। 
दरअसल भारतीय सामाजिक ताना-बाना कुछ इस तरह का है जहां पुरुष के प्रत्येक कृत्य को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है। स्त्री के विरुद्ध उसके हिंसात्मक व्यवहार को पुरुषत्व के साथ जोड़ कर देखा जाता है। दूसरी ओर यह परिभाषित किया जाता है कि सफल स्त्री वही है जो हर हाल में परिवार को बांध कर रखे। यह ‘सबक’ वह इस तरह आत्मसात् कर लेती है कि उसका अस्तित्व परिवार के सम्मुख बौना हो जाता है। 
यही कारण है कि शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना को वह बर्दाश्त करना नियति समझती है। घरेलू हिंसा स्त्री को सिर्फ शारीरिक चोट ही नहीं पहुंचाती अपितु एक लंबे समय में उसे अवसाद का शिकार बना देती है। 
कानून व जनजागृति आश्रय बन सकते हैं लेकिन ये भी तब तक कारगर साबित नहीं होते जब तक स्त्री स्वयं इस अत्याचार के खिलाफ ‘न’ नहीं कहती। स्वयं की पहचान को खोकर परिवार के अस्तित्व को बनाए रखना किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता।
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