scriptभारी-भरकम सरकारों के बोझ तले कैसे बनेगा देश आत्मनिर्भर? | How will the country become self-sufficient under the heavy burden | Patrika News

भारी-भरकम सरकारों के बोझ तले कैसे बनेगा देश आत्मनिर्भर?

locationनई दिल्लीPublished: Oct 02, 2020 02:57:49 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

लूट और शोषण पर टिका विकास का मौजूदा मॉडल
मशीनीकरण, शहरीकरण और निजीकरण के चक्रव्यूह से बाहर निकले बिना आत्मनिर्भर भारत का निर्माण संभव नहीं होगा

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एक तरफ ये काफी सुखद समय है कि हम लोग महात्मा गांधी के 150 वर्ष और विनोबा जी के 125 वर्ष मना रहे हैं, लेकिन कोविड महामारी ने हमारा ध्यान दूसरी तरफ खींच लिया है और चर्चा के केंद्र में ऑर्थिक कठिनाई और जीवन से जुड़ी अन्य परेशानियां आ गई हैं। ध्यान से देखें तो महामारी इस ओर इशारा कर रही है कि हम गांधी और विनोबा को ठीक से समझें। कोविड का संदेश यही है कि मनुष्य अपने अहंकार के कारण ऐसी गलतियां कर बैठे हैं, जिससे दुनिया विनाश के कगार पर खड़ी है। अगर हम ईमानदार होते तो इस मौके का फायदा उठाकर अपनी गलतियों को सुधारने का प्रयास करते और लालच पर आधारित वर्तमान विकास और आर्थिक व्यवस्था को सुधारने में जुट जाते।

चिंतकों-विचारकों को उम्मीद थी कि दुनिया के अर्थशास्त्री और राजनेता कोविड के संदेश को समझेंगे और अपने वर्तमान रास्ते बदलेंगे। लेकिन दुर्भाग्य है कि वे महामारी को सिर्फ स्वास्थ्य समस्या समझ कर टालने में लगे हैं। दुर्भाग्य यह भी है कि भारत सरकार की नीतियों में आत्मनिर्भरता के स्थान पर परावलम्बन की संभावनाएं बढ़ती दिखाई पड़ रही हैं। अब हम एक बार फिर महात्मा गांधी की दृष्टि को समझने की कोशिश करें। उनसे जब पूछा गया कि क्या आप भारत को इग्लैंड जैसा बनाना चाहेंगे तो उन्होंने कहा कि इंग्लैंड की शान आधी दुनिया की लूट पर टिकी है। भारत को अगर इग्लैंड बनाना हो तो लूटने के लिए एक दुनिया भी कम पड़ जाएगी। आज हम लोग लूट और शोषण पर आधारित जो शहर केन्द्रित विकास का मॉडल खड़ा कर रहे हैं, ये कभी आत्मनिर्भर हो ही नहीं सकता।

गांधी चाहते थे कि आत्मनिर्भर गांवों के समन्वय से भारत देश बने। गांव को कंगाल बनाकर शहर को बसाने वाली विकास व्यवस्था की कल्पना उन्होंने कभी नहीं की होगी। विकास के बारे में गांधी की मान्यता रही कि जो हाथ से बन सकता है, उसे हाथ से बनाया जाए। जो गांव में बन सकता है उसे गांव में बनाया जाए, और जो छोटे उद्योगों में बन सकता है उसे वहां बनाया जाए। उनका कथन यही है कि जो हाथ से गांव में या छोटे उद्योगों में नहीं बन सकता, उसे बड़े उद्योगों में बनाया जाए। दूसरी ओर, आज की सरकारों की पूरी ताकत आत्मनिर्भर समाज बनाने के बदले मशीनीकरण, शहरीकरण और निजीकरण के काम में खर्च हो रही है। इस चक्रव्यूह से बाहर निकले बिना आत्मनिर्भर भारत संभव नहीं होगा। अंग्रेज हुकूमत के प्रतिनिधियों ने जब गांधी जी से पूछा, हम आपकी कैसे मदद कर सकते हैं, तो उन्होंने जवाब दिया कि एक ही मदद की जरूरत है – आप हमारी पीठ से उतर जाएं। जो भी देश सरकारी तंत्र पर भारी-भरकम खर्च करेंगे, आत्मनिर्भरता की बात वहां सपना बन कर ही रह जाएगी।

कोविड महामारी के बाद हमने देखा कि लाखों-लाखों लोग भूखे हजारों किलोमीटर चल रहे हैं। सरकार नामक सफेद हाथी उन्हीं के सिर पर बैठा हुआ है। इस हाथी पर करोड़ों खर्च किए जा रहे हैं। इस तरह क्या कोई देश स्वावलंबी या आत्मनिर्भर बन पाएगा? आजादी के बाद आचार्य कृपलानी संसद में इस प्रकार के मुद्दे बार-बार उठाते थे। वे चाहते थे, जब तक देश का हरेक व्यक्ति आत्मनिर्भर नहीं बनेगा तब तक फिजूल खर्ची बिल्कुल न की जाए।

त्योहारों के इस देश में महात्मा गांधी का जन्मदिन भी त्योहार जैसा मना के आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन यदि हम ईमानदारी से गांधी जी को देखना और सीखना चाहें तो ये एक अवसर है। हमारी आगे की जीवन शैली और कार्य शैली निर्धारित करेगी कि हम गांधी के संदर्भ में ईमानदार हैं या सिर्फ दिखावा कर रहे हैं।

2 अक्टूबर गांधी जयंती के साथ-साथ अहिंसा दिवस भी है। यदि अर्थशास्त्री और राजनेता इस आईने से अपने निर्णय और कार्यकलापों को देख सकें और तौल सकें, कि उनके निर्णयों के परिणामस्वरूप मानव समाज और प्रकृति पर हिंसा कम होगी या बढ़ेगी, तो मुझे विश्वास है कि हम अपने विकास की अवधारणाओं को समाज के नजदीक ले जा पाएंगे। संभवत: गांधी भी हमसे यही उम्मीद कर रहे हैं।
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