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बाढ़ के पार मानवता का सेतु

केरल में आज जो किया जा रहा है, वह अचानक पैदा मानवीय प्रयत्नों की बाढ़ नहीं है। यह छोटी-छोटी नदियों की पतली-पतली अप्रदूषित धाराएं हैंं, जो एक बड़ी लहर के रूप में आज वहां दिखाई दे रही है।

Aug 26, 2018 / 11:02 am

सुनील शर्मा

kerala flood

– विष्णु नागर, वरिष्ठ पत्रकार
हताश करने वाली, अंदर से तोडऩे वाली, देश और उसके लोगों के भविष्य के बारे में चिंतित करने वाली रोज आने वाली खबरों के बीच केरल में सौ साल बाद आई भयंकर बाढ़ की खबर भी इन्हीं में से एक लग सकती है मगर पूरी तरह ऐसा भी नहीं है। निश्चित रूप से केरल का पुनर्निर्माण एक बहुत बड़ी चुनौती है और बहुत जल्दी हमारा ध्यान बेमतलब के मुद्दों पर खुद भी उलझ जाएगा और उलझाया जाएगा भी।
शुरुआत हो चुकी है। ऐसी त्रासदी से निबटना वहां के लोगों और सरकार के लिए आसान नहीं होगा। बहुत समय लगेगा मगर केरल का समाज, वहां का सरकारी तंत्र उत्तर भारत से कई मायनों में बेहतर है। यह कभी भी वहां गया कोई व्यक्ति आसानी से देख सकता है। हम भले ही समय के साथ उदासीन हो जाएं, लेकिन वहां के लोग, संगठन, समाज, सरकार सब फिर भी लगे रहेंगे। जल्द ही वहां काफी कुछ बेहतर होता, बदलता, फिर से रूप लेता दिखेगा। ऐसी त्रासदियां हममें से लगभग हर एक को कुछ ऐसे संदेश दे जाती हैंं, कुछ ऐसा हमारे भीतर जगा जाती हैं, जो नफरतों के इस माहौल में भी हमारे भीतर रोशनी की तरह जगमगाता रहता है।
केरल की इस त्रासदी से निबटने में राज्य और केंद्र सरकार कितनी कामयाब या नाकामयाब रहींं, इसका मूल्यांकन भी लोग आगे-पीछे करेंगे और आज भी कर रहे हैं। लेकिन वहां लोगों के अदम्य साहस, जिजीविषा, मानवीय प्रयत्नों की सफलता की अनंत कहानियां हमारे भीतर अधिक समय तक जिंदा रहेंगी। उन लोगों ने भी द्ग जिन्होंने शायद केरल देखा भी नहीं होगा द्ग जब सुना कि ऐसी भयंकर त्रासदी सुदूर दक्षिण में आई है तो जिस तरह का भी प्रयत्न अपनी सीमा में बन पड़ा, किया और अभी भी कर रहे हैं।
मदद करने की जैसे एक लहर सी चल पड़ी है, जो शायद जल्दी थम जाए मगर एक दूरी जो लोगों ने तय की है, एक मजबूत पुल जो पूरे देश के लोगों ने केरल और बाकी भारतीयों के बीच बनाया है, अपने भीतर की गहरी मानवीयता को जो उकेरा है, जगाया है, यह क्या कम छोटी बात है? दृश्य माध्यम कुछ मायनों में अधिक सार्थक साबित होते हैं, उसकी अनदेखी करना भी गलत होगा। इस लिहाज से अखबारों और टीवी चैनलोंं ने जो बड़ी भूमिका निभाई है, वह कम से कम इस क्षण, इस समय बहुत महत्त्वपूर्ण है, ऐतिहासिक है।
और ऐसा भी नहीं कि यहां सब चंदा इकट्ठा करने और राहत सामग्री जुटाने तक ही सीमित रहे, गुरुद्वारों से जुड़े संगठनों के लोग लंगर बांटने वहां पहुंचे और जहां पहुंच पाना तत्काल संभव नहीं था, अब वहां पहुंच रहे हैं। जिसकी जो विशेषज्ञता वहां काम आ सकती है, उसके साथ वह वहां जा पहुंचा है द्ग भाषा और भूगोल की लंबी दूरियां पार कर।
खुद केरल निवासियों ने अपने लोगों की खातिर जितना काम किया, वह अनोखा है। वहां के गरीब मछुआरे टोलियां बनाकर ऐसे-ऐसे क्षेत्रों में पहुंचे, जहां सरकारी एजेंसियों का पहुंचना भी मुश्किल था। उन्होंने अपनी रोजी-रोटी छोड़ी। सरकार से बस डीजल मांगा। तिरुवनंतपुरम के इंजीनियरिंग के छात्रों ने डेटा केबल और चार बैटरियों को मिलाकर अस्थायी पावर बैंक बनाए, ताकि बाढ़ से घिरे लोगोंं के मोबाइल चार्ज हो सकें।
कुछ आइएएस अफसर ऐसे भी थे, जो अफसरी भूल कंधे तक गहरे पानी में बच्चों को बचाने पहुंचे, एक ने चावल की बोरियां तक कंधे पर लादकर पहुंचाई। हायर सेकंडरी स्कूल में पढऩे वाली एक छात्रा ने अपने भाई की मदद से माता-पिता को तैयार किया कि वे अपनी एक एकड़ जमीन बेच कर द्ग जिसकी कीमत पचास लाख रुपए है द्ग सरकार के राहत कोष में दें। सड़सठ वर्ष के एक हिंदू खेत मजदूर को दफनाने के लिए उसके पास पर्याप्त जमीन भी नहीं थी तो एक चर्च ने अपनी जमीन में उसे दफनाने की इजाजत दी। एक युवा ने पूरी रात राहतकर्मी के साथ काम किया। थक कर वह एक मित्र के घर सोने गया तो पता चला कि उसका अपना परिवार भी बाढ़ से घिर चुका है। फिर दौड़ा। ऐसी सैकड़ों-हजारों कहानियां हैं।
रोज भी हम अपने आस-पड़ोस में, अखबारों-टीवी चैनलों को देखें तो वहां भी हर जगह, हर कोने में ऐसी ज्यादा नहीं तो कुछ कहानियां बिखरी पड़ी मिलेंगी। यह केरल में आज जो किया जा रहा है, वह अचानक पैदा मानवीय प्रयत्नों की बाढ़ नहीं है। यह छोटी-छोटी नदियों की पतली-पतली अप्रदूषित धाराएं हैंं, जो एक बड़ी लहर के रूप में आज वहां दिखाई दे रही है।
इस मौके पर कई निजी संगठनों की भूमिका स्तुत्य है। हमारे तमाम सैनिक-अर्धसैनिक दलों और आपदा से जुड़े संगठनों की भी कितनी ही व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयासों की देखी-अनदेखी-विलुप्त कहानियां हैं। दुखद यह है कि बेंगलूरु की कुछ बड़ी आइटी और अन्य कंपनियों ने तो कुछ किया मगर जिन कारपोरेट घरानों के नाम हम सब की जुबां पर हैं, उनके दिलों-दिमागों में लगता है, अभी केरल की खबर ने दस्तक नहीं दी है।
नफरत की लहरें आकर यह सब कुछ बहाने लगेंगी मगर अभी तो आपने देखा न, कि जो धर्म के नाम पर केरल की मदद न करने की गुहार लगा रहे थे, जो इस त्रासदी को सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश के ‘पाप’ से जोड़ रहे थे, किस तरह किनारे जा लगे हैं।

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