script‘मोदी को समझना है तो बीते 100 साल समझें’ | 'If you want to understand Modi, then understand the past 100 years' | Patrika News

‘मोदी को समझना है तो बीते 100 साल समझें’

locationनई दिल्लीPublished: Mar 02, 2021 07:47:14 am

– चर्चित किताब ‘जुगलबंदी: भाजपा मोदी युग से पहले’ के लेखक विनय सीतापति का साक्षात्कार।

'मोदी को समझना है तो बीते 100 साल समझें'

‘मोदी को समझना है तो बीते 100 साल समझें’

मोदी और उनके फैसलों को जानना है तो हिंदू राष्ट्रवाद के सौ साल के समय को समझना होगा। इसी सोच के साथ वर्षों की मेहनत और सैकड़ों से संवाद के बाद विनय सीतापति ने लिखी है किताब द्ग ‘जुगलबंदी: भाजपा मोदी युग से पहले।’ ऐसे वक्त में जब विमर्श के नाम पर तलवारें खींची जाती हैं, उन्होंने बेलौस सच्चाइयों को रखा है। मुकेश केजरीवाल से उनकी बातचीत के संपादित अंश-

मौजूदा विमर्श में मोदी इतने हावी हैं, लेकिन आपने उनसे ठीक पहले के कालखंड को चुना..
आज प्रधानमंत्री मोदी के फैसले और नीतियां चर्चा में रहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि उन्हें अचानक किसी सुबह कोई खयाल आ जाता है और वो उसे पूरा करने निकल पड़ते हैं। धारा 370 जैसे मुद्दों को लें तो यह

1950 के दशक से जनसंघ से जुड़ा है। मैं हिंदू राष्ट्रवाद की 100 साल की कहानी सामने लाना चाहता हूं। वर्तमान को समझने के लिए इसकी पृष्ठभूमि को समझना बहुत जरूरी है। नरेंद्र मोदी आज जो हैं, उसे बनाने में 100 साल लगे हैं।

आडवाणी-वाजपेयी की जुगलबंदी की खास बातें…
हिंदू राष्ट्रवाद को हमेशा एक जुगलबंदी की जरूरत रही है। क्योंकि इसके दो मकसद हैं। एक है समाज को बदलना, जिसके लिए संगठनकर्ता की जरूरत रहती है। पहले इस भूमिका में दीनदयाल उपाध्याय रहे, फिर आडवाणी और अब अमित शाह हैं। दूसरा है वक्ता, जो संसद और सत्ता को संभाल सके। दीनदयाल के समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी वक्ता के तौर पर थे। यह हिंदू राष्ट्रवाद की पहली जुगलबंदी थी। उसके बाद आए वाजपेयी और आडवाणी।

वाजपेयी की व्यक्तिगत जिंदगी की भी आपने खूब चर्चा की है…
वाजपेयी की परवरिश कट्टर ब्राह्मणवादी परिवेश में हुई थी। वे उदारवादी और नेहरूवादी कैसे बने, इसमें राजकुमारी कौल का बड़ा योगदान है। उनका बुद्धिजीवियों का रिश्ता था। राजकुमारी धर्म व राजनीति के मेल को ठीक नहीं मानती थीं।

संघ ने इन संबंध को लेकर क्या सवाल खड़े किए?
आरएसएस को यह रिश्ता बिल्कुल पसंद नहीं था। 1960 के दशक में संघ के सरसंघचालक गोलवलकर ने दिल्ली में बैठक भी बुलाई। संघ के वरिष्ठ नेताओं ने अलग-अलग तरह की टिप्पणियां कीं। गोलवलकर ने वाजपेयी से इस रिश्ते को खत्म करने को कहा। लेकिन वाजपेयी ने साफ कह दिया कि राजनीतिक रूप से आगे बढऩे के लिए वे अपने रिश्ते को नहीं तोड़ सकते। गोलवलकर को पता था कि वाजपेयी के बिना हिंदू राष्ट्रवाद संसद में नहीं बढ़ सकता। वाजपेयी को समझने के लिए एक आधुनिक और स्वतंत्र महिला को समझना बहुत जरूरी है। वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी के बरक्स

मोदी-शाह की जोड़ी को किस तरह देखते हैं?
आडवाणी और वाजपेयी की सोच अलग-अलग थी। यही उनकी ताकत और खूबी थी। जैसे दो अलग-अलग विधा के संगीतकार एक धुन बजाएं। लेकिन मोदी और शाह दोनों एक जैसे सोचते हैं। वाजपेयी और आडवाणी का रिश्ता बराबरी का था। दोनों ने एक-दूसरे के नीचे काम किया। लेकिन ऐसा नहीं कि अमित शाह अध्यक्ष या पीएम बनेंगे और मोदी उनके नीचे काम करेंगे। लेकिन दूसरी जीत के बाद प्रेस कांफ्रेंस में मोदी ने कहा कि अध्यक्ष अमित शाह हैं और वे ही सारे जवाब देंगे। मैं उनके नेतृत्व में ही काम कर रहा हूं…
मैं लोगों से पूछना चाहूंगा कि क्या वे सोच सकते हैं कि अमित शाह पीएम बनेंगे और मोदी चुपचाप उनकी कैबिनेट में मंत्री बनकर काम करेंगे?

अभी बुद्धिजीवी वर्ग अपनी भूमिका निभा पा रहा?
मैं हिंदू राष्ट्रवाद का समर्थक नहीं, लेकिन संघ से सहमत हूं कि अपनों की आलोचना घर के अंदर ही हो।

दक्षिणपंथी, वामपंथी जैसे खानों में रख देते हैं लोग
इन दिनों बात प्रामाणिक हो, तब भी जिसके खिलाफ जाती है आपको दुश्मन मानने लगता है। आपका अनुभव?
किताब की पांडुलिपि पांच वकीलों ने पढ़ी, क्योंकि मैं डरा हुआ हूं। इन दिनों लोग बड़ी जल्दी आपको दक्षिणपंथी, वामपंथी जैसे खानों में रख देते हैं। एक बार लेबल लग जाए, तो तथ्य कमजोर हो जाते हैं। इसलिए मैंने किताब 300 पेज की लिखी है और 100 पेज सिर्फ फुटनोट्स के दिए हैं। रेस्टोरेंट में ग्राहक को सिर्फ खाना ही नहीं, उसकी रैसिपी भी पेश कर दी है। जहां मैने तर्क दिए हैं, आप उसे खारिज कर सकते हैं, लेकिन तथ्यों को नहीं।

‘सावरकर ने अच्छी तरह समझा था हिंदुत्व का मतलब’
निगम चुनावों में भी भाजपा शीर्ष नेतृत्व सक्रिय हो रहा है। क्या चुनाव जीतना हमेशा जरूरी रहा है? 20वीं शताब्दी की शुरुआत में अंग्रेजों ने चुनाव शुरू किए तो हिंदू राष्ट्रवाद की रचना हुई। सावरकर ने 1923 में हिंदुत्व के बारे में सबसे महत्त्वपूर्ण निबंध लिखा। सावरकर ने अच्छी तरह समझा था कि हिंदुत्व का मतलब है हिंदू वोट बैंक। इतने साल बाद मोदी वही कर रहे हैं जिसमें माना जाता है कि हिंदुस्तान के 80 फीसदी लोग हिंदू हैं और उनमें से 40 फीसदी भी हिंदू बन कर वोट करें तो और कोई जीत ही नहीं सकता। हिंदू राष्ट्रवाद और चुनाव अलग नहीं हो सकता। संघ खुद को सांस्कृतिक और गैर राजनीतिक संगठन बताता है, लेकिन ऐसा कहना गलत होगा। असम, पुडुचेरी या पश्चिम बंगाल में 30 साल से ये संगठन हिंदू एकजुटता का जो काम कर रहे थे अब इसका लाभ भाजपा को मिल रहा है। ये आपस में लड़ते जरूर हैं, पर यह शोले के जय और वीरू जैसी लड़ाई है। दोनों एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते।

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