लंबी खींचतान को खत्म करने के इरादे से पंजाब में कांग्रेस विधायक दल की बैठक में दो-तीन नामों के सामने आने के बाद चरणजीत सिंह चन्नी के नाम पर मुहर लगने को भले ही लोकतांत्रिक प्रकिया बताया जा रहा हो। लेकिन सब जानते हैं कि ऐसी बैठकों में भी आलाकमान के फैसले पर मुहर लगाने की कवायद ही राजनीतिक दलों की ओर से होती है। चन्नी के शपथ लेने से पहले ही उत्तराखंड के पूर्व सीएम हरीश रावत के बयान पर पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने तीखी प्रतिक्रिया दी है। वहीं कैप्टन अमरिंदर सिंह का शपथ समारोह से दूर रहना बताता है कि पंजाब में असंतोष की चिंगारी कभी भी फिर सुलग सकती है।
यह समस्या पंजाब की ही नहीं है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी नेताओं की खींचतान जगजाहिर है। कहा जा रहा है कि ‘ऑपरेशन पंजाब’ के बाद आलाकमान इन प्रदेशों में भी सुलह के कदम उठाएगा। ये कदम चौंकाने वाले हो सकते हैं, ऐसी चर्चा भी शुरू हो गई है। पर मूल सवाल यह है कि कांग्रेस आलाकमान की छवि फैसले करने में ढुलमुल रवैया अपनाने वाली क्यों बनती जा रही है? क्यों राज्यों के क्षत्रपों में कलह थम नहीं पा रहा? क्यों पार्टी के वरिष्ठ नेता जब-तब पार्टी में आत्मचिंतन की जरूरत जताते रहते हैं? इन सवालों का समाधान करके ही कांग्रेस खोया जनाधार वापस लेने के प्रयास कर सकती है? चुनावी हार-जीत अपनी जगह है, पर नेताओं के बीच कलह बढ़ता रहा तो मजबूत विपक्ष के रूप में खड़े होना भी इस पार्टी के लिए मुश्किल हो सकता है। पंजाब ही नहीं, और भी चार राज्य हैं जहां उसे चुनाव का सामना करना है। फिलहाल पंजाब के अलावा राजस्थान व छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेस अपने दम पर सत्ता में है। पार्टी दो साल से अंतरिम अध्यक्ष के भरोसे चल रही है।
पंजाब के मुख्यमंत्री को बधाई देते हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे नई शुरुआत बताया है। यह बात और है कि सत्ता की सीढ़ी चढऩे के लिए पार्टी को कई मोर्चों पर नई शुरुआत करनी ही होगी।