इमरान खान यहां तक पहुंचे हैं तो इसकी कई वजहें हैं। उनकी लोकप्रियता, सियासी टिकाऊपन, तालिबान से उनके कथित संपर्क, चुनाव में भारत-विरोधी भाषण और सबसे ज्यादा अहम फौज का समर्थन। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी पर पाकिस्तानी फौज को कमजोर करने की मंशा का आरोप लगाया था। उनकी पार्टी पीटीआइ को सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं लेकिन इतना नहीं कि अपने दम पर सरकार बना ले जाए। उनकी सरकार गठबंधन वाली होगी। मोटे तौर पर देखें तो ऐसी कोई भी सरकार हमेशा से अस्थिर रहे और तकरीबन दिवालिया मुल्क में स्थिरता की गारंटी नहीं देती। पाकिस्तान संकट प्रबंधन में अक्षम है। भारत ने इस संकट प्रबंधन में महारत हासिल कर ली है। लोकतंत्र भारत में जड़ पकड़ चुका है। पाकिस्तान के साथ ऐसा नहीं है।
फौज निर्वाचित सरकारों के प्रति जवाबदेह होती है। लेकिन पाकिस्तान में फौज का प्रभुत्व तब शुरू हुआ, जब जनरल मो. अयूब खान सिकंदर मिर्जा का तख्तापलट करते हुए 27 अक्टूबर 1958 को राष्ट्रपति बन गए। जनरल अयूब को मार्च 1969 में इस्तीफा देना पड़ा। तब तक पाकिस्तानी शासन में फौज के प्रभुत्व के बीच बोये जा चुके थे। जुल्फिकार अली भुट्टो ने फौज का असर कम करने की कुछ कोशिश की लेकिन जनरल जिया-उल-हक ने 1979 में उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया।
राष्ट्रपति के रूप में जिया का शासन 1977 से 1988 के बीच रहा। वे एक कठमुल्लावादी मुसलमान थे। उनके राज में अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं थी। तीसरे तानाशाह मुशर्रफ ने पीएम मनमोहन सिंह को हलके में लेते हुए उन्हें आश्वस्त किया कि वे दोनों मिलकर कश्मीर का मसला हल कर सकते हैं। मुशर्रफ के विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी ने इस शानदार कवायद पर खूब लिखा है। मनमोहन सिंह ने अगर कश्मीर पर किसी भी सौदे को मंजूर कर लिया होता तो देश का कोपभाजन उन्हें बनना पड़ता। खुशकिस्मती से मुशर्रफ भी सत्ता से बाहर हो गए।
इमरान खान सरकार का भविष्य कैसा होगा, इसके अंदाजे के लिए यह संक्षिप्त पृष्ठभूमि बतानी जरूरी थी। अपने पहले भाषण में इमरान खान ने कहा, ‘भारत यदि एक कदम उठाएगा तो पाकिस्तान दो कदम उठाएगा।’ यह उनकी सदिच्छा है। पाकिस्तानी फौज उन्हें एक कदम भी नहीं उठाने देगी। भारत और पाकिस्तान के बीच लगातार अनुकूल संबंध बने रहना फौज के लिए अभिशाप है। भारत हमेशा पाकिस्तानी फौज के लिए दुश्मन ही बना रहेगा।
अपनी अंतिम पुस्तक ‘अ स्टेट इन डिनायल’ में बीजी वर्गीज ने लिखा था, ‘फौज ने अपना एक विशाल आर्थिक साम्राज्य बना लिया है। उसके पास जमीनें भी काफी हैं। उसकी गतिविधियों में बीमा, परिवहन, टोल रोड, पोत, विमानन, संचार, निर्माण, आइटी सेवाएं, होटल, भारी मशीनरी का निर्माण, सीमेंट, उर्वरक, ऊर्जा, तेल के टर्मिनल, खाद्य उत्पाद, चीनी, मत्स्यपालन, कुक्कुट, बेकरी, सिनेमा और अन्य तमाम काम आते हैंं।’
पाकिस्तान का विदेश विभाग और उसके राजनयिक अपना आधा वक्त और ऊर्जा भारत को कोसने में जाया करते हैं। देश की तमाम पुरानी बीमारियों को भारत के सिर मढ़ दिया जाता है। कश्मीर को लेकर उनकी सनक उन्हें उलटा नुकसान पहुंचाती है। संयुक्त राष्ट्र के अप्रासंगिक और पुराने पड़े संकल्पों को लेकर चीखते रहना दिखाता है कि वे हकीकत का सामना करने में कितने अक्षम हैं। यहां तक कि अमरीका भी कश्मीर का मुद्दा उठाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता, न ही किसी इस्लामिक देश को मतलब है। अकेले चीन ही पाकिस्तान की लकीर पीटता रहता है।
नई दिल्ली में चीन के राजदूत ने कुछ हफ्ते पहले कहा था कि कश्मीर का समाधान खोजा जा सकता है यदि केवल भारत, पाकिस्तान और चीन साथ मिल-बैठ कर बात करें। जाहिर है बगैर बीजिंग से इशारा मिले वे ऐसी बात नहीं कह सकते थे। भारत कभी भी तीसरे पक्ष को स्वीकार नहीं करेगा। कुछ साल पहले राष्ट्रपति क्लिंटन ने एक ऐसा ही प्रस्ताव रखा था कि भारत, पाकिस्तान और अमरीका को साथ बैठ कर बात करनी चाहिए लेकिन भारत के प्रधानमंत्री ने खान साहब को चेता दिया कि कश्मीर में एक और खुराफात का नतीजा गंभीर होगा।
जहां तक मेरा खयाल है, आने वाले वक्त में, मैं भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में कोई सार्थक सुधार नहीं देखता। बाकी, भारत की सरकार और अवाम इमरान खान को उनकी कामयाबी और खुशकिस्मती की शुभकामनाएं देती है।