जिनमें है रंगमंच की मौलिक दृष्टि
Published: Nov 06, 2022 03:51:39 pm
यह सच है, लेखक के छिपाए दृश्यों को नाट्य निर्देशक ही चाक्षुस बिम्बों से उसका भाषाई रूपान्तरण करता है। कलाओं की दृष्टि से अर्जुनदेव चारण के नाट्यकर्म पर इसलिए भी ध्यान जाता है कि उन्होंने अपने बूते राजस्थानी रंगमंच को देशभर में स्थापित किया है। उनके लिखे राजस्थानी नाटक 'जमलीला' और 'जातरा' का भारत भर के नाट्य उत्सवों में मंचन हुआ है।


जिनमें है रंगमंच की मौलिक दृष्टि
राजेश कुमार व्यास
कला समीक्षक रंगकर्म चाक्षुषयज्ञ है। माने आंखो का अनुष्ठान। पर रंगमंच से जुड़े परिवेश की सूक्ष्म सूझ की दृष्टि से हमारे यहां अब भी अच्छी नाट्य कृतियों का अभाव है। नाट्यालेख बढिय़ा हो, यह तो जरूरी है पर नाट्य की मूल जरूरत मंचन की मौलिक दीठ भी है। रतन थियम ने मणिपुरी नाट्य कला को जिस तरह से आगे बढ़ाया, ठीक वैसे ही अर्जुनदेव चारण ने हमारे यहां राजस्थानी भाषा की नाट्य परम्परा को नया आकाश दिया है। देश भर में उनके लिखे और निर्देशित राजस्थानी नाटक इसीलिए अपार लोकप्रिय हुए हैं कि वहां पर उनकी अपनी मौलिक रंग युक्तियां के साथ नाट्य का सधा हुआ शिल्प लुभाता है। बकौल अर्जुनजी नाटक दृश्य भाषा है।
यह सच है, लेखक के छिपाए दृश्यों को नाट्य निर्देशक ही चाक्षुस बिम्बों से उसका भाषाई रूपान्तरण करता है। कलाओं की दृष्टि से अर्जुनदेव चारण के नाट्यकर्म पर इसलिए भी ध्यान जाता है कि उन्होंने अपने बूते राजस्थानी रंगमंच को देशभर में स्थापित किया है। उनके लिखे राजस्थानी नाटक 'जमलीला' और 'जातरा' का भारत भर के नाट्य उत्सवों में मंचन हुआ है। भारत भवन, भोपाल में एक व्याख्यान के लिए जाना हुआ था, तभी पहली बार वहीं उनका नाटक 'जमलीला' देखने का सुयोग हुआ था। रंगभाषा, संगीत और कथ्य की विशिष्ट लय में यह नाटक भीतर तक जैसे रच-बस गया। देखने के बाद भी इसीलिए मन में निरंतर यह घटता रहा है। पाश्र्व में ध्वनित इसका संगीत भी अद्भुत है। अनुभूत हुआ प्रेक्षागृह नहीं, राजस्थान के किसी गांव में पहुंच गया हूं। यह संयोग ही था कि दर्शक दीर्घा में उनके पास ही बैठा था। धीरे से संगीत और उसके बोल 'म्हाने अबकी बचाओ म्हारी माय बटाऊ आयो लेवण ने...Ó पर चर्चा करता हूं। वह बताते हैं हां, यह 'हरजस' ही है। गौर करता हूं, उनके नाटक में यमलोक जा रहे प्राणियों का कोई प्रसंग है। पर संगीत की यह विरल दृष्टि नाटक में घटित कथा में गहरे से उतार ले जाती है।
इधर, उनके नाटकों को देखने का निरंतर अवसर मिला है और पाया है, उनके नाटक लोक संवेदनाओं का उजास लिए भारतीय नाट्य परम्परा की एक तरह से बढ़त है। किस्सागोई में गुंथे जीवन के अनूठे मर्म वहां हैं। 'मुगती गाथा', 'बलिदान', 'धर्मजुद्ध', 'जातरा' आदि उनके नाटकों में आंगिक, वाचिक, सात्विक अभिनय-भेद के साथ ही नाट्य-पाठ का व्यावहारिक दृृश्य रूपान्तरण है। लोक नाट्य से जुड़ी परम्परा को पुनर्नवा करते हुए उन्होंने राजस्थानी नाट्य विधा को आधुनिक संदर्भ दिए हैं। वह कहते हैं,'नाट्य शास्त्र में अभिनय से भी अधिक महत्त्व प्रस्तुति से जुड़े अन्य उपादानों, संगीत, आहार्य आदि का है।' अर्जुनदेव चारण का एक नाटक है, 'बलिदान'। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अमर योद्धा केसरीसिंह बारहठ की जीवनी के ओज में लिखा यह नाटक इस रूप में विरल है कि इसमें स्वाधीनता संग्राम से जुड़े इतिहास के गुम पन्ने ही जीवंत नहीं हुए हंै, बल्कि नाट्य प्रदर्शन की अपार संभावनाओं को समझा जा सकता है। अतीत से वर्तमान के काल-रूपान्तरण की इसकी नाट्य युक्ति भी अनूठी है। लेखकीय संवेदना के साथ प्रदर्शन की अपेक्षाओं, अभिनय से जुड़ी आवश्यकताओं, मंचीय परिवेश, दृश्यों के विभाजन, पात्रों के प्रवेश-प्रस्थान की मौलिक युक्तियों के साथ चरित्रों से जुड़े संयोजन की उनकी गहरी समझ नाटक देखने के लिए निरंतर प्रेरित करती है।