ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे राजनेता या तो संविधान के प्रावधानों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं अथवा जानबूझकर अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए पिछड़ा वर्ग आरक्षण संबंधी मामलों एवं मांगों को गाहे-बगाहे हवा देते रहते हैं। उच्चतम न्यायालय के अनुसार जाति, वर्ग का पर्यायवाची नहीं है और न ही यह समानार्थक है। सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन का एकमात्र कारण जाति नहीं है। हां, मात्र सुसंगत कारण हो सकता है। इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने यह भी स्पष्ट कहा है कि बगैर जाति के संदर्भ के व्यवसाय व आय के आधार पर आरक्षण वैध है। परन्तु केवल आय व सम्पत्ति के आधार पर आरक्षण अथवा आर्थिक आरक्षण अवैध है।
संसद भी संविधान के अनुच्छेद 15(4) में आर्थिक शब्द को जोडऩे की मांग को अस्वीकार कर चुकी है। वहीं उच्चतम न्यायालय भी केन्द्र द्वारा आर्थिक आधार पर दिये गए 10 प्रतिशत आर्थिक आरक्षण को अवैध करार दे चुका है।
उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण को योग्यता के विरुद्ध नहीं माना परन्तु अपवर्जन का सिद्धांत अपनाकर क्रिमीलेयर लागू किया गया। सामान्यतया अनेक फैसलों में कहा गया है कि आरक्षण 50 प्रतिशत से कम रखा जाएगा जिससे कुशलता व योग्यता प्रभावित न हो। वर्गीकरण के संबंध में संविधान में कोई प्रावधान नहीं है। राज्य, विस्तृत सर्वेक्षण के बाद तुलनात्मक सामाजिक स्थिति तथा जनसंख्या के आधार पर विचार कर सकता है पर अतिपिछड़े के नाम पर पिछड़े वर्गों का आरक्षण कम नहीं किया जाएगा।
इस प्रकार धर्म, जाति व केवल आय व सम्पत्ति के आधार पर आरक्षण प्रदान करना संविधान में दी गई आरक्षण की व्यवस्था के विरुद्ध है। यह देखना आवश्यक है कि एक बार जो वर्ग पिछड़ा मान लिया गया है वह सदा-सदा के लिए पिछड़ा नहीं बना रहे।