समस्या शौचालयों के अभाव तक सीमित नहीं है। न्यायमूर्ति रमना के मुताबिक देश की सिर्फ 5 फीसदी अदालतों में बुनियादी चिकित्सा सहायता उपलब्ध है। करीब 50 फीसदी अदालत परिसरों में पुस्तकालय नहीं हैं, तो 46 फीसदी में शुद्ध पानी की सुविधा भी नहीं है। सीजेआइ का कहना था कि भारत में न्यायिक बुनियादी ढांचे को हमेशा नजरअंदाज किया गया। यह धारणा बन गई है कि अदालतें जीर्ण-शीर्ण संरचनाओं के साथ भी काम कर सकती हैं। लेकिन बुनियादी सुविधाओं के अभाव में अदालतों की कार्यक्षमता प्रभावित होती है।
अदालतों में लगातार बढ़ते लम्बित मामलों के पीछे बुनियादी सुविधाओं का अभाव भी एक कारण है। इस समस्या से पार पाने के लिए प्रधान न्यायाधीश अदालतों को वित्तीय स्वायत्तता देने और राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण की स्थापना पर जोर दे रहे हैं। उन्होंने कानून मंत्री किरण रिजिजू से आग्रह किया है कि प्राधिकरण के लिए संसद के शीतकालीन सत्र में प्रस्ताव लाया जाए। यह वाकई चिंताजनक है कि आजादी के बाद लम्बे समय तक अदालतों के ढांचागत विकास की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। कई अदालतों के भवन जर्जर हो चुके हैं, तो कई अदालतें आज भी किराए की इमारतों में चल रही हैं।
अदालतों में इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी सुविधाएं बढ़ाने के लिए केंद्र प्रायोजित योजना को कुछ महीने पहले पांच साल के लिए 2026 तक बढ़ाने को मंजूरी दी जा चुकी है। कुल 9,000 करोड़ रुपए की लागत वाली इस योजना में केंद्र की हिस्सेदारी 5,357 करोड़ रुपए होगी। इसमें सभी जिला और अधीनस्थ अदालतों में 1,450 शौचालयों के निर्माण का भी लक्ष्य है। इस योजना को ‘पीएम गति शक्ति’ योजना की तरह तेजी से पूरा करने की कोशिश होनी चाहिए। दार्शनिक जॉन रॉल्स ने अपनी किताब ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ में मार्के की बात कही है- ‘न्याय सामाजिक संस्थाओं का प्रथम एवं प्रधान सद्गुण है।’ इस सद्गुुण की रक्षा के लिए अदालतों का हर तरह की सुविधा से लैस होना जरूरी है।