हम अपने आसपास मंडरा रहे खतरों के प्रति काफी हद तक लापरवाह हैं। हमें दूसरों की जिम्मेदारी तय करने का अच्छा अभ्यास है लेकिन अपने कर्तव्य के बारे में मजबूरियां आड़े आ जाती हैं। शहरों का दायरा बढ़ रहा है, अपार्टमेंट्स के रूप में वर्टिकल विस्तार हो रहा है। लेकिन सुरक्षा के सामान्य एहतियात लागू करने की गंभीरता की कमी साफ नजर आ रही है। आबादी के अनुपात में पुलिसकर्मियों की कमी तो है ही लेकिन पुलिस तंत्र से यह अपेक्षा रखना भी ज्यादती ही होगा कि वे अपार्टमेंट की हर मंजिल के हर फ्लैट की निगरानी करें। इसके लिए नागरिक समूह, कॉलोनाइजर सब मिलकर जिम्मेदार क्यों नहीं बनते? नौकर या किरायेदार का पुलिस वेरिफिकेशन फॉर्म थाने में जमा करने में यदि एक नागरिक को डर लगता है तो यह भय निकालने की जिम्मेदारी शासन तंत्र या पुलिस की अवश्य है। कम्युनिटी पोलिसिंग बढ़ाना, पुलिस का बीट सिस्टम मजबूत करना, नागरिक-पुलिस दूरी कम करने में सहायक होगा। हर राज्य के कुछ शहरों या कुछ इलाकों में इसके प्रयोग जरूर हुए हैं लेकिन इसकी रफ्तार बढ़ाने की जरूरत अवश्य है।
दूसरी ओर, ऐसे ही एक अन्य बड़ी चिंता नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से बार-बार जाहिर होती है। आंकड़े कहते हैं कि दुष्कर्म या यौनशोषण के 94 फीसदी से अधिक मामलों में आरोपी या तो घर-परिवार का ही सदस्य, दोस्त या पड़ोसी ही होता है। स्कूलों में भी इन दिनों ऐसी कई घटनाएं रिपोर्ट हुई हैं। चेन्नई में एक नाबालिग से दुष्कर्म करने वाले 17 लोगों में उसी रिहायशी सोसाइटी के लिफ्टमैन, वाचमैन, प्लम्बर, माली आदि थे। इसका आशय यह कतई नहीं कि हम समाज या रिश्तों में भयग्रस्त होकर आशंका से हर वक्त घिरे रहें, लेकिन हमें सावचेत तो रहना ही होगा। आंख खुली रखकर और एहतियात अपनाकर हम अपने इर्द-गिर्द के तमाम खतरों और परेशानियों को टाल सकते हैं। सुरक्षित समाज की दिशा में हमारा एक कदम, कई अन्य के लिए प्रेरक भी होगा।