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आजादी तो मिली, पर जारी है संघर्ष

आजादी के साथ हमारे बहुत से सपने जुड़े थे। आजादी के साथ देश में लोकतंत्र तो जरूर आया लेकिन वो लोक शक्ति, जिसके आधार पर हमें आजादी मिली, हाशिए पर पहुंचा दी गई।

Sep 17, 2018 / 03:54 pm

विकास गुप्ता

आजादी के साथ हमारे बहुत से सपने जुड़े थे। आजादी के साथ देश में लोकतंत्र तो जरूर आया लेकिन वो लोक शक्ति, जिसके आधार पर हमें आजादी मिली, हाशिए पर पहुंचा दी गई।

हम जब आदिम अवस्था में थे, तब शायद आजादी का कोई विचार नहीं था। यह विचार दासता के अनुभव से उत्पन्न हुआ है। दासता या गुलामी यदि नहीं होती तो शायद आजादी भी नहीं होती। सात दशक पहले हजारों कुर्बानियों के बाद जब देश आजाद हुआ था, तब हमारा आजादी का सपना केवल अंग्रेजी सियासत से मुक्ति मात्र नहीं था। आजादी के साथ हमारे बहुत से सपने जुड़े थे। आजादी के साथ देश में लोकतंत्र तो जरूर आया लेकिन वो लोक शक्ति, जिसके आधार पर हमें आजादी मिली, हाशिए पर पहुंचा दी गई।

तंत्र आगे बढ़ता रहा और लोक अपनी गरिमा को बचाने के लिए संघर्ष में जुटा रहा। वो संघर्ष जो, गरीबी, भूख, असमानता, भ्रष्टाचार, रंगभेद, लिंगभेद, जात-पात, आतंकवाद, महजबी कड़वाहट और शिक्षा इत्यादि को लेकर था, आज तक अनवरत जारी है। आजादी के बाद हुए विकास ने नीर, नारी और नदी का सम्मान घटा दिया है। संस्कृत की एक उक्ति में कहा गया है कि ‘मां और मातृभूमि तो स्वर्ग से भी महान होती है’, लेकिन आज हम देश से पहले स्वयं के बारे में सोचते हैं। हमारे लिए देश केवल कागज पर बना एक नक्शा अथवा धरा का एक टुकड़ा बनकर रह गया है।

हम भूल गए कि जिस टुकड़े पर हम रहते हैं वो हमारी जन्मभूमि के साथ ही साथ हमारी कर्मभूमि भी है, जो न जाने कितने ही आतप और संताप सहते हुए हमारा लालन-पालन करती है। वैश्वीकरण और बाजारीकरण के वशीभूत होकर पर्यावरण संरक्षण आज हम भूल गए हैं। अपनी ही प्रकृति का दोहन करना कैसी आजादी? यदि आप परिवार में और समाज में रहते हैं तो आपको सब कुछ मनचाहा करने की आज़ादी नहीं मिल सकती है, क्योंकि यहां पर आपकी आजादी दूसरों की आजादी को प्रभावित करने के साथ, सही और गलत से जुड़ी होती है और इसकी सीमितताएं होती हैं। मनुष्य के स्वस्थ विकास में बाधक निवारणीय अभावों से मुक्ति ही आजादी है एवम् जहां पर अन्य किसी की स्वतंत्रता बाधित न हो, वो ही आजादी है।

बहुत दुख की बात है कि आज हमारी पहचान भारतीय होने से पहले राज्यों, धर्मों और भाषाओं से जुड़ी है। आतंकवादी और अलगाववादी हवाएं चारों ओर फैल रही हैं और हम सब तरह-तरह के मजहबी नारों में अपना अस्तित्व तलाश कर रहे हैं। जिन सपनों को लेकर हमारे क्रांतिकारियों ने इतनी कुर्बानियां दीं, क्या आज हम सब उन सपनों के लिए ईमानदारी से सजग हैं? परिस्थितियां बदली हैं, सोच बदल रही है, लेकिन क्या आज भी वे कुरीतियां बदली हैं? जो किसी नारी को अनावश्यक बंधन में बांधकर रोक लगाती हैं। घरेलू हिंसा, दहेज, शारीरिक उत्पीड़न, तीन तलाक से मुक्ति आदि पर किए गए प्रयासों पर नारी का जो हश्र हो रहा है वो सर्वविदित है। यदि ये समाज और परिवार के वश के बाहर की बात है तो इससे निपटने के लिए विधायिका और न्यायिक हस्तक्षेप आवश्यक है, अन्यथा स्वतंत्रता के बदले अर्थ से न जाने कितने ही परिवार तबाह हो जाएंगे।

शिक्षा, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास के बल पर आज स्त्रियां अंतरिक्ष में ऊंची उड़ान तो भर रही हैं, लेकिन सरेआम दिन-दहाड़े हमारी राजकुमारियों को रौंदा जा रहा है, उनके मान-सम्मान को कुचला जा रहा है। लोकतंत्र में ये न जाने कैसे भीड़ तंत्र का जन्म हुआ है जो दिन में, दोपहर में, रात में किसी भी स्त्री की आजादी को अपने वहशीपन के चलते, छीनकर

कुचल रहा है। कैसी है ये आजादी? सात दशक बीत गए हमें आजाद हुए, लेकिन आज भी मन से गुलाम हैं। पाश्चात्य देशों में मजहब कभी भी चुनावी मुद्दा नहीं होता है, वहां पर केवल सामाजिक समस्याएं चुनावी मुद्दा होती हैं। इसके विपरीत हमारे देश में मजहब चुनावी मुद्दा बनता है जिसका सबसे बड़ा कारण है अशिक्षा। अशिक्षा के कारण मजहबी कट्टरता बढ़ती जाती है, जिसके फलस्वरूप न जाने कितनी और समस्याएं बढ़ने लगती हैं। लोक का यह विश्वास कि हिंसा, नारों, धरनों, जुलूसों और उपद्रवों से तंत्र सक्रिय होता है, बहुत ही दुखद और निंदनीय है। कोई क्रांति यदि बदलाव ला सकती है तो वह है शिक्षा का प्रचार-प्रसार। शिक्षा एक मात्र ऐसा अस्त्र है जो हमें मानसिक दासता से मुक्त कराकर समता, सौहार्द और प्रेम से मिल-जुल कर रहना सीखा सकता है।

दासता से मुक्ति के सात दशक बीतने पर जिस खुशी और उल्लास को लोक में दिखना चाहिए था, वो अभी तक नदारद है। यह सोचना या मानना तो बिल्कुल ही गलत है कि देश केवल राजनेताओं और अभिनेताओं की बपौती होता है। ये तो बनता है वहां रहने वाले लोगों से, चाहे वो किसी भी धर्म और समुदाय के क्यों न हों, आप से, हम-तुम से और उन सभी से, जो अपनी बुद्धिमता, कर्मठता, योग्यता और शक्तियों से देश का गौरव बढ़ाते हुए बहुजन हित के लिए सोचते हैं।

– डॉ. पारुल तोमर

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