सुब्बारावजी आजादी के सिपाही थे लेकिन वे उन सिपाहियों में नहीं थे जिनकी लड़ाई 15 अगस्त 1947 को पूरी हो गई। वे आजादी के उन सिपाहियों में थे जिनके लिए आजादी का मतलब लगातार बदलता रहा और उसका फलक लगातार विस्तीर्ण होता गया। कभी अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति की लड़ाई थी तो कभी अंग्रेजियत की मानसिक गुलामी से मुक्ति की। फिर नया मानवीय व न्यायपूर्ण समाज बनाने की रचनात्मक लड़ाई विनोबा-जयप्रकाश ने छेड़ी तो वहां भी अपना हाफ-पैंट मजबूती से डाटे सुब्बाराव हाजिर मिले।
यह कहानी 13 साल की उम्र में शुरू हुई थी जब 1942 में गांधीजी ने अंग्रेजी हुकूमत को ‘भारत छोड़ो!Ó का आदेश दिया था। बेंगलूरु, कर्नाटक के एक स्कूल में पढ़ रहे सुब्बाराव को दूसरा कुछ नहीं सूझा तो उसने अपने स्कूल व नगर की दीवारों पर बड़े-बड़े हरफों में लिखना शुरू कर दिया – क्विट इंडिया! नारा एक ही था तो सजा भी एक ही थी – जेल। आजादी की आवाज लगाता वह किशोर जो जेल गया तो फिर जैसे लौटा ही नहीं। आवाज लगाता-लगाता अब जा कर महामौन में समा गया। आजादी की लड़ाई लडऩे का तब एक ही मतलब हुआ करता था – कांग्रेस में शामिल हो जाना। कांग्रेस सेवा दल के संचालक हार्डिकर साहब की आंखें उन पर टिकीं तो सुब्बाराव को एक साल कांग्रेस सेवा दल को देने के लिए मना लिया। युवकों में काम करने का अजब ही इल्म था सुब्बाराव के पास, और उसके अपने ही हथियार थे उनके पास। भजन व भक्ति-संगीत तो वे स्कूल के जमाने से गाते थे, अब समाज परिवर्तन के गाने गाने लगे। आवाज उठी तो युवाओं में उसकी प्रतिध्वनि उठी। सुब्बाराव ने दूसरी बात यह पहचानी कि देश के युवाओं तक पहुंचना हो तो देश भर की भाषाएं जानना जरूरी है। इतनी सारी भाषाओं पर ऐसा एकाधिकार इधर तो कम ही मिलता है। ऐसे में कब कांग्रेस का, सेवादल का चोला उतर गया और सुब्बाराव खालिस सर्वोदय कार्यकर्ता बन गए, किसी ने पहचाना ही नहीं।
1969 का वर्ष गांधी जन्म शताब्दी का वर्ष था। सुब्बाराव की कल्पना थी कि गांधी-विचार और गांधी का इतिहास देश के कोने-कोने तक पहुंचाया जाए। उनका प्रस्ताव स्वीकार किया गया और छोटी-बड़ी दोनों लाइनों पर दो रेलगाडिय़ां साल भर सुब्बाराव के निर्देशन में भारत भर में घूमती रहीं। मध्यप्रदेश के चंबल के इलाकों में घूमते हुए श्रम-शिविरों का सिलसिला शुरू हुआ। कई अशांत क्षेत्रों को ध्यान में रख कर, वे चुनौतीपूर्ण स्थिति में शिविरों का आयोजन करने लगे। चंबल में बागी-समर्पण के अद्भुत काम में सुब्बाराव की अहम भूमिका रही। चंबल के क्षेत्र में ही, जौरा में सुब्बाराव का अपना आश्रम था जो दस्यु-समर्पण का एक केंद्र था।
सुब्बाराव ने बहुत कुछ किया लेकिन अपनी धज कभी नहीं बदली। हाफ-पैंट और शर्ट पहने, हंसमुख सुब्बाराव बहुत सर्दी होती तो पूरे बांह की गर्म शर्ट में मिलते थे। अपने विश्वासों में अटल लेकिन अपने व्यवहार में विनीत व सरल सुब्बाराव गांधी-विद्यालय के अप्रतिम छात्र थे। वे आज नहीं हैं क्योंकि कल उन्होंने विदा मांग ली। लेकिन उनका विद्यालय आज भी खुला है और नए सुब्बारावों को बुला रहा है।