कहीं देश की सेना का मनोबल न टूट जाए..!
अक्टूबर 2016 में सशस्त्र सेनाओं के अधिकारियों के ओहदे में कमी की काफी खबरें मीडिया में आईं

- कर्नल पी.के. वैद्य
दिल्ली के जंतर- मंतर पर 30 अक्टूबर को शांतिपूर्वक धरना दे रहे भूतपूर्व सैनिकों, वीर नारियों, वीरता पुरस्कार से अलंकृत सैनिकों और अधिकारियों को बलपूर्वक हटाया गया। इसे सशस्त्र सेनाओं और देश के हित में टाला जा सकता था। देश के लिये अपना सब कुछ समर्पित करने वाले इन सैनिकों को अपेक्षा रहती है कि उन्हें उनका न्यायोचित हक मांगना न पड़े। लेकिन, उनके साथ ऐसा व्यवहार मनोबल तोडऩे वाले है। वन रेंक वन पेंशन को आंशिक रूप से वर्तमान सरकार ने लागू तो किया लेकिन इसमें जो कमियां हैं, उन्हें दूर नहीं किया जा रहा है।
जस्टिस नरसिम्हा रेड्डी की एकल सदस्यता वाली न्यायिक समिति ने जो एक वर्ष पूर्व रिपोर्ट दी थी, उसे न तो उजागर किया जा रहा और न ही लागू किया जा रहा है। अक्टूबर 2016 में सशस्त्र सेनाओं के अधिकारियों के ओहदे में कमी की काफी खबरें मीडिया में आईं। इनके मुताबिक रक्षा मंत्रालय में जो गैर सैन्य अधिकारी विभिन्न पदों पर आते हैं, उनकी डयूटी और कार्य की जिम्मेदारी के आधार पर सैन्य अधिकारियों से तुलना संबंधी पत्र भी सामने आए हैं। इनके अनुसार प्रिंसिपल डायरेक्टर मेजर जनरल के बराबर, डायरेक्टर ब्रिगेडियर व ज्वाइंट डायरेक्टर कर्नल के बराबर दर्शाया गया है। जबकि वर्तमान में प्रिंसिपल डायरेक्टर ब्रिगेडियर, डायरेक्टर कर्नल व ज्वाइंट डायरेक्टर लेफ्निेंट कर्नल के समान है।
जब इस तरह की चर्चाएं एक वर्ष पूर्व हो रही थीं तब रक्षा मंत्री ने आश्वासन दिया था कि यदि कोई भी विसंगति रैंक में पाई गई तो उसे एक सप्ताह में ठीक कर लिया जाएगा परंतु आज अधिकारियों की समूह बी के साथ समानता की चर्चा हो रही है जो दुर्भाग्यपूर्ण है। इसी तरह साठ के दशक में पुलिस ने उनके रैंक बैज का अपग्रेडेशन किया था। पुलिस के डीआईजी ने ब्रिगेडियर के रैंक बैज पहनना चालू कर दिये थे। रक्षा मंत्रालय की आपत्ति पर गृह मंत्रालय ने हास्यास्पद जवाब दिया कि इसमें कोई अव्यवस्था नहीं है क्योंकि मिलीटरी के रैंक बेज ब्रास के होते हैं और पुलिस के रैंक बेज सिल्वर के होते हैं।
यह बात वहां पर खत्म हो गई परंतु आज 7वें वेतन आयोग में डीआईजी का वेतन ब्रिगेडियर से ज्यादा कर दिया गया है। ऐसे में इस तरह के पत्रों या सरकुलर पर होने वाली कार्यवाही को सशस्त्र सेनाओं द्वारा नजरअंदाज कर मौन नहीं धारण किया जा सकता। केंद्रीय कर्मचारियों में 30 फीसदी से अधिक सशस्त्र सेनाएं आती हैं परंतु आज तक किसी भी वेतन आयोग में सशस्त्र सेनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं रखा गया। परिणास्वरूप सेना के साथ न्याय नहीं हो पाता है।
मैं चार माह सियाचिन ग्लेशियर में रहा हूं। वहां पर एक-एक दिन, एक-एक साल बराबर लगता है। ऐसे इलाके के लिये जहां -40 डिग्री तापमान चला जाता है, जो भत्ते निर्धारित किये गए हैं वो गैर सैन्य अधिकारी के शिमला और शिलांग जैसी जगहों में पदस्थ होने के लिये दिये जाने वाले दूरस्थ इलाकों के भत्तों से आधे से भी कम है। यदि सशस्त्र सेनाओं का प्रतिनिधित्व वेतन आयोग में होता तो सेनाओं के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव वाले निर्णयों पर उचित विचार किया जा सकता था। सरकार को चाहिए कि वह सेना के मनोबल तोडऩे वाले फैसलों से बचे और जल्द से जल्द न्याय करे।
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