महिला की सहमति के खिलाफ जबरन यौन संबंध बनाना दुष्कर्म ही होता है। चाहे महिला विवाहित हो या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। भारत में वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध मानने का कानून नहीं है। इसलिए पत्नी, पति के खिलाफ शिकायत नहीं कर सकती। सरकार का यह तर्क है कि ऐसा कानून बनाने से विवाह की संस्था खतरे में पड़ जाएगी, शर्मनाक है और सरकार के पितृसत्तात्मक और पुरातन विचारों को दर्शाता है। विवाह की संस्था का यह मतलब नहीं होता है कि पत्नी को असहमति का अधिकार नहीं हो और पति उसके साथ गुलामों जैसा व्यवहार करे।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को अवैध घोषित कर दिया तो कुछ लोगों ने इसके पक्ष में तर्क दिया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के हिसाब से यह वैध है पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विवाह पति-पत्नी का सहमति से जीने का रिश्ता है यदि सहमति के खिलाफ कुछ होता तो यह असंवैधानिक होगा और कोई यह नहीं कह सकता कि पत्नी मेरी संपत्ति है, जब मैं चाहूं तब त्याग दूं। ठीक उसी तरह से यह नहीं कहा जा सकता जब मैं चाहूं तब पत्नी को संबंध बनाने पड़ेगें और यह मेरा अधिकार है।
दूसरा सरकार आईपीसी की धारा ४९८ ए का हवाला दे रही है। इस धारा के अंतर्गत दहेज से जुड़े मामले आते हैं। सरकार का तर्क है कि इस धारा का दुरुपयोग बहुत बढ़ गया है और वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध मानने का कानून बना तो उसका भी ऐसे ही दुरुपयोग हो सकता है। साथ ही सरकार यह तर्क दे रही है कि ४९८ ए में ही पति द्वारा पत्नी से जबरन यौन संबंध बनाने पर सजा का प्रावधान है और नए कानून की जरूरत नहीं है। पर हकीकत तो यह कि इस धारा के तहत शिकायत करना और गिरफ्तारी होना ही मुश्किल हो गया है।
जहां तक कानून के दुरुपयोग की बात है तो अब तक जितने भी अध्ययन हुए हैं वो बताते हैं कि महिलाएं ४९८ ए का उपयोग ही बहुत कम करती हैं, दुरुपयोग तो दूर की बात है। विभिन्न तरह की प्रताडऩा झेलने के बावजूद महिलाएं पुलिस में शिकायत देने नहीं जाती हैं। जब बात बहुत बढ़ जाती है तो शिकायत होती है। महिला हिंसा के मामलों में ज्यादातर पुलिस और परिवार के लोग समझौते का दबाव डालते हैं। इसलिए समझौते होने का मतलब यह नहीं है कि दुरुपयोग हो गया।
इसका मतलब है कि पुलिस ने अपना काम ठीक से नहीं किया और यह दबाव बनने दिया किया कि समझौता हो जाए। यदि कुछ फर्जी केस हो भी जाएं तो वे केवल इसी कानून में तो होते नहीं है। ऐसे कुछ केस तो हर कानून में मिल जाएंगे। पर महिला संबंधी कानूनों में ही यह कहा जाता है कि कानून ही ना बनाया जाए या फिर कानून रद्द कर दो। यह तर्क बेहद ही बेबुनियाद और पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देने वाला है।