इन उप-चुनावों के नतीजों का विश्लेषण इतने सीधे तरीके से नहीं किया जाना चाहिए। अगर उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी दो लोकसभा सीटों को और बिहार में राजद एक लोकसभा और एक विधानसभा सीट जीत कर यह मान ले कि उनकी लोकप्रियता बढ़ रही है तो यह भी गलत आकलन ही होगा। या फिर कांग्रेस यह मान लें कि तीन राज्यों में लोकसभा उपचुनाव हार के बाद उसकी सत्ता में वापसी की संभावना केवल इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि उसकी धुर प्रतिद्वंद्वी भाजपा हार गई है, तो यह भी उसकी खुशफहमी ही होगी।
चुनावों की हार जीत का विश्लेषण करते समय राजनीतिक दल चुनावी रणनीतियों, जातिगत समीकरणों, धार्मिक भावनाओं, गठजोड़ों, मतदान प्रतिशत आदि पर तो चर्चा कर लेते हैं पर जनता के मन में क्या चल रहा है-यह भूल जाते हैं। या फिर वे जनता को नासमझ और भोली मान लेते हैं। लेकिन देश की जनता ने हर बार यह साबित किया है कि असल में उसे नासमझ समझने वाले खुद नासमझ हैं।
केन्द्र में कांग्रेस के लम्बे शासन के बाद भी जब लोगों की मूलभूत समस्याएं बनी रहीं तो देश के मतदाताओं ने ‘अच्छे दिनों’ की आस में भाजपा को सत्ता सौंप दी। पर जब उसे लगा कि पार्टी के नेता भी उसकी समस्याओं से आंखे फे र कर सत्ता के अहंकार में फूलते जा रहे हैं तो उपचुनावों में उसे सबक सिखाना शुरू कर दिया। उसने समझ लिया कि राजनीतिक दलों के नेताओं के मूल चरित्र में कोई अंतर नहीं है। कभी विजय माल्या तो कभी नीरव मोदी इस सच्चाई को उजागर कर देते हैं। दूसरी ओर, त्रिपुरा में माणिक सरकार कितने ही चरित्र के धनी हों, पर यदि उनमें समस्याओं को तेजी से हल करने की क्षमता नहीं है तो भी जनता समझ जाती है कि अब उसे विकल्प ढूंढना ही होगा।
उत्तरप्रदेश और बिहार उप चुनावों के नतीजों को भी हमें देश की जनता की उस समझदारी की ओर संकेत मानना चाहिए जब वह राजनीतिक दलों की वास्तविकता से परिचित होते ही सबक सिखाने और विकल्प तलाशने के रास्ते पर चल निकलती है। दूसरे तथ्य छोटा-मोटा फर्क तो डाल सकते हैं पर असली कसौटी है अपने कर्म और चरित्र से जनता का दिल जीतना। जो राजनीतिक दल इसे समझ लेगा, उसे सिर आंखों पर बिठाया जाएगा। नहीं समझा गया तो जनता की सबक सिखाने और विकल्प तलाशने की यात्रा फिर शुरू हो जाएगी।