ऑस्ट्रेलिया का दावा है कि भारत अगले 20 वर्षों में दुनिया के दो-तीन सबसे शक्तिशाली देशों में से एक होगा, और वो उसकी कामयाबी का हिस्सा बनना चाहता है। घरेलू राजनीति में चीन की दखलअंदाजी भी एक कारण है जिसके चलते ऑस्ट्रेलिया चीन पर आर्थिक निर्भरता कम कर भारत पर ध्यान केंद्रित करना चाहता है। इस रिपोर्ट का एक हिस्सा खासा दिलचस्प है और वह है ‘ऑस्ट्रेलिया के राज्यों का राष्ट्रीय विदेश नीति में समावेश’। भारत की तरह ऑस्ट्रेलिया भी राज्यों का संघ है, पर ऑस्ट्रेलिया के राज्य अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए दूसरे देशों और राज्यों से सीधे संपर्क बनाते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में ही ऑस्ट्रेलिया के छह राज्यों में से पांच के या तो खुद के ट्रेड एंड इन्वेस्टमेंट ऑफिस हैं या फिर स्थायी प्रतिनिधि हैं। ये ऑफिस राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से दूर मुंबई, बेंंगलूरु इत्यादि में हैं।
ऑस्ट्रेलिया का मानना है कि अगले दो दशकों में भारत के राज्य अर्थव्यवस्था में निर्णायक भूमिका अदा करेंगे और इसीलिए केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों के साथ सीधे संपर्क से ऑस्ट्रेलिया को फायदा पहुंचेगा। ऑस्ट्रेलिया का यह रुख भारत के राज्यों को विदेश नीति में सक्रिय भागीदारी का संदेश देता है। हालांकि भारतीय संविधान के तहत विदेश नीति केंद्र सरकार के विशिष्ट दायरे में आती है, लेकिन 1992 के आर्थिक सुधारों के बाद इस व्यवस्था में काफी बदलाव आया।
केंद्रीकरण कम होने से राज्य सरकारों का आर्थिक नीतियों पर नियंत्रण बढ़ा और राज्य सरकारें विदेशी कंपनियों और सरकारों से निवेश आकर्षित करने के लिए ‘इन्वेस्टर समिट’ करने लगीं। जब हैदराबाद आइटी हब के रूप में उभरा, तो आंध्र प्रदेश सरकार ने कई विदेशी कंपनियों के साथ काम किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब जापान, चीन और सिंगापुर के दौरे कर उन्होंने विदेशी कंपनियों को गुजरात में निवेश के लिए आकर्षित किया। हाल ही आपदा राहत को लेकर केरल-यूएई संबंधों की झलक भी मिली।
इजरायल-भारत रिश्तों को सामान्य बनाने में भी राज्यों का बुनियादी योगदान रहा। 1992 से 2013 तक राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों ने सत्रह बार इजरायल का दौरा किया और कृषि, जल संसाधन, आइटी जैसे कई क्षेत्रों में संपर्क बढ़ाया। यह प्रक्रिया, जो 1992 में शुरू हुई थी, आज और भी स्थापित हो चुकी है। आज तकरीबन हर बड़ा राज्य ‘ग्लोबल इन्वेस्टर समिट’ तो करता ही है, कई मुख्यमंत्री भी विश्व के प्रमुख आर्थिक केंद्रों का सालाना दौरा कर कंपनियों को आमंत्रित करते हैं। केरल और पंजाब जैसे राज्यों ने एनआरआइ मामलों पर सरकारी विभाग भी शुरू किए हैं। वहीं भारत का सबसे नया राज्य तेलंगाना भी इस दिशा में प्रयासरत है।
दूसरी ओर, ऑस्ट्रेलिया के अतिरिक्त अनेक देश भारत के राज्यों में रुचि ले रहे हैं। जर्मनी, दक्षिण कोरिया, जापान, अमरीका आदि देशों के वाणिज्य दूतावास इसका प्रमाण हैं। ऑस्ट्रेलिया की रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत का आर्थिक भविष्य दिल्ली से दूर उसके राज्यों और शहरों द्वारा परिभाषित किया जाएगा और एक समृद्ध भविष्य के लिए केंद्र और राज्य दोनों को विदेश संबंधों के साधन का भरपूर लाभ उठाना चाहिए।
इसके लिए कुछ मूलभूत सुधारों की जरूरत है। पहली यह कि राज्य सरकारें विदेशों में स्थायी प्रतिनिधि तैनात करने की पहल करें। उदाहरण के लिए कर्नाटक कैलिफोर्निया में एक ट्रेड ऑफिस स्थापित करे ताकि आइटी और बायो-टेक्नोलॉजी के इन दो ध्रुवों के बीच आदान-प्रदान बढ़े। अक्सर मुख्यमंत्रियों के सालाना दौरे आगे की कार्यवाही के अभाव में पर्याप्त असर नहीं छोड़ पाते, इसके चलते राज्य बतौर ब्रांड स्थापित होने में कामयाबी हासिल नहीं कर पाते। ऐसे में केंद्र को गंभीर पहल करने वाले राज्यों को सहयोग देना चाहिए। संभव हो तो भारतीय दूतावासों में ही राज्यों को प्रतिनिधित्व की छूट भी दी जा सकती है।
दूसरी जरूरत राज्य सरकारों की विदेश नीति में रुचि जगाने की है। जैसे अमरीका की शोध संस्था ‘ईस्ट-वेस्ट सेंटर’ ने अमरीका और दक्षिण कोरिया के राज्यों के बीच संबंधों से उभरने वाले रोजगार अवसर, पर्यटन राजस्व इत्यादि का मूल्यांकन किया, वैसे ही प्रयास भारत में भी किए जा सकते हैं। तीसरा और सबसे जरूरी सुधार है भारतीय नागरिकों की सोच में बदलाव। हमारी राष्ट्रीय सरकारें राज्य सरकारों के शासन-क्षेत्र वाले विषयों में लिप्त रहती हैं, वहीं राज्य सरकारें स्थानीय शासन स्तर के कामों में। इसका बड़ा कारण है नागरिकों की गलत अपेक्षाएं। भारत के कई राज्य विश्व के कई राष्ट्रों से जनसंख्या व क्षेत्रफल में बड़े हैं। जब नागरिकों की राज्य सरकारों से अपेक्षा का स्तर ऊंचा उठेगा, तभी सरकारों का बर्ताव बदल पाएगा।
(साथ में टेक्नोलॉजी प्रोफेशनल हेमंत चांडक)