भारतीय दर्शन में कल्याण कारक, प्राण ऊर्जा का संवर्धक तथा चेतना विकसित करने वाला तत्व माना गया है जल
आज हमारे परम्परागत जलस्रोत अपने अतीत के गौरवमयी इतिहास को पुनर्जीवित करने के लिए प्राचीन परम्पराओं के निर्वहन को तरस रहे हैं। जल आज के समय की सबसे महत्त्वपूर्ण विरासत है।
कितने ही जलस्रोत लुप्त हो चुके हैं, और कितनों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। यही वजह है कि वर्षा जल का समुचित संरक्षण नहीं हो पा रहा है और आज सभी जगह घटता भूजल स्तर हम सभी के लिए चिंता का विषय बना हुआ है।
Dr. shiv singh Rathore
शिव सिंह राठौड़ देश-दुनिया में जल संकट के चलते जब-तब पैदा हो रही भयावह स्थिति से हम अनजान नहीं हैं। पुराने समय में किसी विषय की महत्ता पर जोर देने के लिए परम्पराओं का निर्माण होता था और ये परम्पराएं हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग बन जाती थीं। आगे चलकर यही परम्पराएं हमारी संस्कृति को जीवित रखती हैं तथा परम्पराओं के माध्यम से ही महत्त्वपूर्ण संदेश पीढ़ी दर पीढ़ी पंहुचाया जाता रहा है।
यदि हम अपनी जल संस्कृति का अध्ययन करें तो पाते हैं कि जल को देवता का स्थान दिया गया है तथा विष्णु का पहला अवतार मत्स्य भी यही संदेश देता है कि जल के बिना जीवन सम्भव नहीं है तथा वायु के बाद जीवनयापन के लिए जल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। वेदों में जल को देवता मानते हुए उसे आप: या ‘आपो देवता’ कहा गया है। जल को अमृत, औषधीय गुणों से परिपूर्ण जीवनदाता मानते हुए वेदों में जल पूजन एवं संरक्षण का संदेश दिया गया है। ऋग्वेद संहिता में लिखा है – आपो अस्मान्मातर: शुन्द्ययन्तु घृतेन नो घृतप्व: पुनन्तु। विश्व हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरूदिदाम्य: शुचिरा पूत एमि।। अर्थात् मातृवत् पोषक जल हमें पावन बनाए। घृत रूपी जल हमारी अशुद्धता का निवारण करे। जल की दिव्यता अपने दिव्य स्त्रोत से विभिन्न पापों का शोधन करे। जल से शुद्ध और पवित्र बन कर हम उध्र्वगामी हों।
भगवद्गीता, कुरान, बाइबल, गुरुग्रंथसाहिब इत्यादि सभी धार्मिक ग्रंथों में जीवन के लिए विभिन्न तत्वों के महत्व को विस्तार से बताया गया है, परन्तु जल पर सर्वाधिक जोर देते हुए इसके संरक्षण का संदेश दिया गया है। भारतीय दर्शन में जल को कल्याण कारक, पुष्टि वर्धक, प्राण ऊर्जा का संवर्धक तथा चेतना विकसित करने वाला तत्व माना गया है। पाश्चात्य दर्शन में भी जल को जगत का आधार बताया है। पाश्चात्य दार्शनिक थैलिज ने कहा है कि जल ही वह द्रव्य है जिसमें सभी वस्तुओं की उत्पत्ति होती है तथा अन्त में उसी में सभी वस्तुएं विलीन हो जाती हैं तथा अरस्तू ने भी थैलिज के सिद्धांत से सहमत होते हुए माना है कि जल सभी वस्तुओं का उपादान कारण है। अत: जल से ही जीवन सम्भव है।
जल की उपलब्धता को देखते हुए ही विश्व में जितनी भी पुरानी सभ्यताएं हैं, वे नदी के किनारे ही विकसित हुई हैं। चाहे सिन्धु घाटी सभ्यता हो या मैसोपोटामिया की सभ्यता। उसके बाद धीरे-धीरे शहरों का विकास होने लगा तथा तत्कालीन शासकों ने अपने राज्यों की स्थापना, राजधानियों और दुर्गों का निर्माण जल की उपलब्धता एवं सुरक्षा के मद्देनजर करवाया। वे जल का महत्त्व जानते थे और उनका मानना था कि मनुष्य भोजन के बिना रह सकता है, लेकिन जल के बिना जीवनयापन सम्भव नहीं है। इसीलिए अनेक परम्परागत जल स्रोतों का निर्माण समय-समय पर आवश्यकतानुसार पूर्व के शासकों और प्रजाजन ने करवाया, जो जलस्रोत निर्माण की परम्परा के रूप में विकसित हुई। ऐसे हर निर्माण कार्य से पूर्व भूमि व उपकरणों का विधिवत पूजन होता था। इस प्रक्रिया के दौरान जल की उपलब्धता सुनिश्चित होने पर गुड़ बांटा जाता था। जलस्रोत के आसपास पत्थरों पर उकेरी जाने वाली कलाकृतियां भी जलस्रोत का महत्त्व बढ़ाती थीं।
वर्षा जल संरक्षण की संरचना भी इन परम्परागत जल स्रोतों का अभिन्न अंग हुआ करती थी, जिससे भूमिगत जल स्तर में कमी नहीं आती थी। आसपास के पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए पेड़-पौधे लगाए जाते थे। घने वृक्षों की वजह में शुद्ध वायु तथा वर्षा चक्र भी नियंत्रित रहता था। उसके बाद जलस्रोत आमजन के प्रयोग के लिए स्थानीय नागरिकों को प्रयोग व संरक्षण के लिए सौंप दिया जाता था। उस समय इस मांगलिक वेला पर महिलाएं मंगल गीत गाती थीं तथा सभी को प्रसाद वितरण कर खुशी मनाई जाती थी। जल को देवता मानते हुए हर दिन उस जलस्रोत पर दीपक जलाया जाता था तथा उसकी पूजा-अर्चना होती थी। यहां तक कि जलस्रोतों पर कोई भी व्यक्ति चरणपादुका भी लेकर नहीं जाता था। ये सभी परम्पराएं हमारी समृद्ध जल संस्कृति का अभिन्न अंग रही हैं और इस तरह हम जलस्रोतों को सर्वोच्च स्थान और महत्त्व देते थे। ये परम्पराएं ही हैं जिनसे हमारे जलस्रोतों का महत्त्व पीढ़ी दर पीढ़ी अक्षुण्ण रहता था। इस कार्य में जन सहभागिता होती थी। हर व्यक्ति जलस्रोतों की साफ-सफाई, संरक्षण, पर्यावरण सुरक्षा अपनी जिम्मेदारी समझ कर करता था। आज भी सैकड़ों वर्ष पूर्व बने कुछ पारम्परिक जलस्रोत (तालाब, बावड़ी, झालरे, सागर कुएं, टांका, नाडा-नाडी) यदि जीवित हैं तो इसका आधार ये परम्पराएं ही हैं।
समय के साथ गांवों और शहरों में विकास हुआ तो भौतिक सुख-सुविधाओं में बढ़ोतरी करते हुए पाइपलाइन के माध्यम से घर-घर जलापूर्ति की जाने लगी। इस वजह से परम्परागत जलस्रोतों की उपेक्षा होने लगी। बदलती परम्पराओं एवं जागृति के अभाव में अधिकांश परम्परागत जलस्रोत कचरा पात्र बनते जा रहे हैं। कितने ही जलस्रोत लुप्त हो चुके हैं, और कितनों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। यही वजह है कि वर्षा जल का समुचित संरक्षण नहीं हो पा रहा है और आज सभी जगह घटता भूजल स्तर हम सभी के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। रख-रखाव के अभाव में जलस्रोतों का वास्तुशिल्प भी जीर्ण-शीर्ण हो रहा है।
आज हमारे परम्परागत जलस्रोत अपने अतीत के गौरवमयी इतिहास को पुनर्जीवित करने के लिए प्राचीन परम्पराओं के निर्वहन को तरस रहे हैं। जल आज के समय की सबसे महत्त्वपूर्ण विरासत है। यदि आज की सरकारें आम जन तक जल संरक्षण और इसके महत्त्व का संदेश पंहुचा कर जागरूक करना चाहती हैं तो हमारी परम्पराओं को पुन: जीवित करना ही होगा। ऐसा करके ही हम जल की प्रत्येक बूंद को संरक्षित करना सुनिश्चित कर सकते हैं।
(भूगर्भ विज्ञान विशेषज्ञ और राजस्थान लोक सेवा आयोग के सदस्य)