कभी आर्थिक बदहाली से जूझने वाले इन भारतीय खिलाड़ियों की उपलब्धि इस तथ्य को गहराई से रेखांकित करती है कि खेलों में संपन्न पृष्ठभूमि के मुकाबले जोश, जज्बे, जुनून और हौसले से लैस होना ज्यादा जरूरी है। बचपन में मीराबाई चानू की आर्थिक बदहाली का आलम यह था कि वह जंगलों में लकडिय़ां बीना करती थीं। लकड़ी के गठ्ठर उठाते-उठाते उनके आत्मविश्वास को बल मिला, जिसका लोहा आज सारी दुनिया मान रही है। उन्होंने टोक्यो में हुए पिछले ओलंपिक में भी रजत पदक जीतकर अपनी प्रतिभा से कायल किया था। रियो ओलंपिक (2016) में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद कुछ समय के लिए निराशा ने उन्हें घेर लिया था, पर 2018 के राष्ट्रमंडल खेलों से वह धमाके पर धमाके कर रही हैं। भारोत्तोलन में उनका स्वर्णिम सफर हर खिलाड़ी को निरंतर आगे बढऩे की प्रेरणा देता है।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान खेलों व खिलाड़ियों को बढ़ावा देने की सरकारी नीतियों के सकारात्मक नतीजे नजर आने लगे हैं। राष्ट्रमंडल खेलों में भारत का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2010 में सामने आया था। तब इन खेलों की मेजबानी दिल्ली ने की थी। भारत के पदकों की संख्या पहली बार 100 के पार गई थी, जिनमें 26 स्वर्ण और 20 रजत पदक शामिल थे। पदक तालिका में ऑस्ट्रेलिया (198) व ब्रिटेन (136) के बाद भारत तीसरे पायदान पर रहा था। बर्मिंघम में 8 अगस्त को खेलों के समापन तक भारत के हिस्से में कितने पदक आते हैं, देशवासियों की नजरें इस पर टिकी रहेंगी। राष्ट्रमंडल खेलों में मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात जैसे बड़े राज्यों के मुकाबले इस बार छोटे राज्यों के खिलाड़ी ज्यादा हैं। यह पहलू चिंताजनक है। अंतरराष्ट्रीय आयोजनों के लिए खिलाड़ी तैयार करने में बड़े राज्य क्यों पिछड़ रहे हैं, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।