राजनीति में भी अति सामान्य पृष्ठभूमि के लोग सत्ता के शीर्ष तक पहुंच रहे हैं। हालांकि पहले भी ऐसे उदाहरण रहे हैं। व्यावसायिक जगत में भी नए कारोबारियों ने जिस तेजी से छलांग लगाई है, उसे देख कई पुश्तैनी धनाढ्यों के होश उड़े हुए हैं। खासजन के किले में आमजन की यह बढ़ती सेंध सही मायनों में सफलता की नई इबारत लिखती नजर आ रही है। किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में ऐसे बदलावों को समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व की भावना के जमीनी रूपान्तरण के रूप में देखा जाना चाहिए। बदलाव की यही प्रक्रिया आगे चलकर देश में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती जा रही आर्थिक खाई को पाटने में भी मददगार साबित होगी। सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से भी देश की संपत्ति और संसाधनों के चंद हाथों में केन्द्रीकरण के सिलसिले को रोकने के लिए भी यह जरूरी है।
भारत जैसे विकासशील देश में मौजूदा सामाजिक स्वरूप और संरचना के निर्धारण में सरकारी योगदान की अहमियत को नहीं भूलना चाहिए। यदि किसी जमाने में सिविल सेवा, राजनीति और व्यापार में किसी वर्ग विशेष का आधिपत्य था तो जाहिर सी बात है कि यह उस समय की सरकारी नीतियों की बदौलत था। अब, जब ये क्षेत्र आमजन के लिए खुल रहे हैं तो इसका श्रेय भी मौजूदा सरकारी नीतियों को दिया जाएगा।
सवाल उठ रहा है कि ऐसा क्या हो गया कि आमजन तरक्की के रास्ते पर है जबकि खासजन की रफ्तार धीमी पड़ गई? इन दिनों आइएएस अधिकारियों की संतानें कम ही आइएएस बन पा रही हैं। यह संकेत देता है कि खासजन को अपनी काबिलियत का इस्तेमाल सामाजिक उत्थान और प्रगति के लिए करते रहना चाहिए। ऐसे लोग हाशिए पर बैठ जाएंगे तो उनके गैर-जिम्मेदाराना रुख को आने वाली पीढिय़ां शायद ही माफ करेगी।