हम इसे साध्य मानने की भूल कर बैठे हैं। सूचना तकनीक से लैस तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद शांति और संतुष्टि कहीं भी किसी के पास नहीं दिखाई पड़ रही है। आज स्वाभाविक लेखन भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहा है, मुझे अच्छे से याद है वो समय जब कागज और कलम का प्रयोग करते हुए भावनाओं के उमड़ते सैलाब को कागज पर बखूबी अनवरत लिखते हुए आकार दिया जाता था, उस समय लेखक और लेखन के बीच कोई अवरोध उत्पन्न नहीं होता था, लेकिन आज कम्प्यूटर पर लिखते समय कभी मात्राओं के लिए, तो कभी चंद्र बिंदु के लिए, तो कभी हलंत के लिए भावों को विराम देते हुए रुकना पड़ता है, जिससे विचारों की स्वाभाविक गति में अवरोध पैदा हो जाता है।
शहरों के साथ ही साथ आज गाँव भी इससे अछूते नहीं हैं। याद कीजिए वो समय जब गाँव शब्द सुनते ही, खेतों से गाँव तक गुजरती कच्ची पगडंडी, साँझ ढले कांधे पर हल और फावड़ा उठाए, बैलों को हाँक लगाते खेतों से लौटते मजदूर और किसान, घर की दहलीज़ पर जलता दीया, मिट्टी की सौंधी खुशबू से महकते चूल्हों से उठता धुँआ, ढिबरी बाती और लालटेन की रोशनी में चारपाई पर बच्चों को कहानियाँ और लोरियाँ सुनाती दादी-नानी और माँ, मंदिरों से आरती और मस्जिदों से अजान की आवाजें,चूड़ियाँ और पाजेब खनकाती भाभी, भाई-बहनों की शरारतें, खुले आंगन में लेटकर चाँद तारों को निहारते, रेडियो की मद्धम सी आवाज में पंसदीदा गीत सुनते-सुनते सो जाना और सुबह भोर के तारे के साथ जागना आदि सब कल्पनाओं में चलचित्र की भांति दौड़ जाता था । पुराने दिनों में गाँव के हर गली-मोहल्ले के मोड़ पर, चौपालों में सब लोग जमघट लगाया करते थे। नीम, जामुन, शहतूत, पीपल और बरगद की घनेरी छाँवों में सब एकजुट होकर, हर दिन दोपहर से लेकर शाम तक इकट्ठा बैठकर हँसी-ठहाकों में, चुटकी बजाते ही छोटी-बड़ी समस्याओं के समाधान निकाला करते थे। प्रत्येक का सुख और दुख, सबका साझा होता था । सर्दियों में कभी पुआल तो कभी गन्ने से उतारी पाती को जलाकर सबका मिलकर अलाव तापना। हर तीज-त्योहार को मिल कर मनाना आदि आज ये सब केवल कल्पनाओं और किताबों में ही रह गया है। गाँव में तेजी से दौड़ती विकास की लहर से आये अप्रत्याशित बदलाव को देखकर खुशी कम, दुख अधिक होता है। इस रेस में गाँव का अपनापन बहुत पीछे छूट गया है ।
इसका सबसे बड़ा शिकार बनी है पत्र लेखन की कला जो न जाने कब से लुप्त होने की कगार पर खड़ी है। आज आप में से शायद ही किसी को यह याद रहा हो कि अंतिम पत्र कब और किसे लिखा था, कैसे किसी चिट्ठी के लिए डाकिये की प्रतीक्षा में पलक पाँवड़े बिछाये बैठे रहते थे। डाकिये की साइकिल की घंटी की गूँज से ही रोम-रोम खिल उठता था। रंग-बिरंगे लिफाफों को देखकर मजमून का भाँप लेना, गुलाबी लिफाफे को दूर से ही झपट लेना, यदि कहीं वो लिफाफा बड़ी दीदी, बड़े भाई या भाभी के लिए होता था तो गुलाबी लिफाफे से ज्यादा गुलाबों का उनके चेहरे पर खिल उठना, बहुत रूमानी लगता था। उनको शर्माते देखकर छोटे-भाई बहनों का मुँह पर हाथ रखकर मंद-मंद मुस्कुराना आज भी जब याद आता है तो मन में न जाने कितनी ही गुलाबी कलियाँ चटक उठती हैं। उस समय चिट्ठियों के साथ जो मन के कोमल भाव, आवेग आदि जुड़े होते हैं, वह इलेक्ट्रॉनिक सन्देश में ढूँढने से भी नहीं मिल सकते हैं ।
आज टेक्नोलॉजी के इस स्वर्णिम दौर में हम सब इन सब बातों और भावों आदि से बहुत दूर हो गए हैं । माना कि यह ज्ञान-विज्ञान का, नई-नई जानकारियों का एक विशाल गढ़ साबित हो रहा है। लेकिन एक अजीब सी बेचैनी, यह अशांति और यह भावशून्यता पहले से अधिक क्यों बढ़ती जा रही है। जिसके प्रवाह में वयस्क और प्रौढ़ ही नहीं बल्कि युवा और बच्चे भी निर्बाध गति से बह रहे हैं। छोटे-बड़े सभी हाथों में मोबाइल और उस पर तेजी से थिरकती अँगुलियों ने आज संदेश भेजने के लिए एक नई भाषा को ही जन्म दे दिया है ‘हिंगलिश’। न ही
पूरी हिंदी और न ही पूरी इंग्लिश। इसमें अपनत्व, स्नेह और उल्लास का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं। हिंगलिश ने भाषाओं को और भी पीछे धकेल दिया है ।
मैं भी मानती हूँ कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी, आधुनिक तकनीक का एक अंग है। और आज हर किसी को ‘तेज रफ्तार’ चाहिए होती है। रफ्तार जब अप्राकृतिक रूप से बढ़ती है तो बेचैनी, अधैर्य, हड़बड़ी, होड़ और दिखावे को बढ़ाती है। जो न तो व्यक्ति के हित में है और न ही समाज के। जबकि पारंपरिक तकनीक में रफ्तार नहीं बल्कि एक लय हुआ करती थी। नई तकनीक ने लोगों को अभिव्यक्ति की ताकत तो दी है, लेकिन समाज की तरह ही यहाँ पर भी लैंगिक असमानता बहुत अधिक है। आज दस प्रतिशत से भी कम महिलाएँ ही सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और उनके लिए यहां कदम-कदम पर बहुत से खतरे भी हैं। अधिकतर महिलाएं ये भी नहीं जानतीं कि इनसे कैसे बचा जाए। यहाँ हरेक व्यक्ति रचनाकार है, इसलिए अफवाहों का बाजार भी हमेशा गर्म रहता है। हमारी सामाजिकता इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। आज हम दूर-दराज के लोगों से तो हमेशा संपर्क में रहते हैं लेकिन अपने परिजनों और अपने आस- पास रहने वाले लोगों के लिए हमारे पास समय नहीं होता है। इसने जितना जोड़ा है उससे कहीं अधिक तोड़ा भी है। इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के बढ़ते और फैलते जाल में मानवीय संवेदनाओं, अहसासों और भावों का मृदुल सागर सूखने लगा है । डाकिये का अरमानों, खुशियों और सुख-दुःख की चिट्ठी-पत्रियों से भरा थैला भी न जाने कब का लुप्त हो चुका है, और न जाने कितनी ही कलाओं का अस्तित्व आज
दाँव पर लगा है।
– पारुल तोमर