एक बात तो साफ हो गया है कि पर्यावरण पर बहुत सारे सेमिनारों और एवं सभा-गोष्ठी के आयोजन भर से जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संकट से निपटारा नहीं हो सकता। देश में जब तक पर्यावरण संकट के मुद्दे को अकादमिक बहसों से निकाल कर सड़कों पर, संसद में और चुनावी राजनीति में नहीं लाया जाएगा, यह समस्या कायम रहेगी। जलवायु परिवर्तन बड़ा संकट है, ऐसे में उत्तर प्रदेश का चुनाव एक बेहतरीन समय साबित हो सकता है।
ऐसा समय जब राजनीतिक दल इस मुद्दे को अपने एजेंडे में शामिल करें। उत्तर प्रदेश के चुनाव में पर्यावरण को एक गंभीर मुद्दा इसलिए भी बनाना जरूरी है क्योंकि तेजी से बढ़ते हुए शहरीकरण और विकास ने यूपी में कई दिक्कतें खड़ी की हैं।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण है कि राज्य के हर हिस्से में प्रदूषण का स्तर बढ़ गया है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक देश के सबसे 20 प्रदूषित शहरों में से चार यूपी के हैं। वर्ष 2005 की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में यूपी से सबसे ज्यादा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित होती है, जो देश के कुल उत्सर्जन का 14 फीसदी है।
सॉलिड वेस्ट का ठीक तरह से निस्तारण नहीं होने की वजह से जमीन, हवा और पानी की भी गुणवत्ता खराब हुई है। ऐसे हालात में उत्तर प्रदेश में आने वाली नई सरकार को इस संकट से निपटने के लिए कुछ कदम उठाने होंगे।
वहां स्वच्छ हवा के लिए एक निश्चित समयावधि में बेहतर गुणवत्ता वाली हवा के लक्ष्यों को पूरा करने के उद्देश्य से एक नीतिगत ढांचे के साथ कार्य योजना बनानी होगी। इसके लिए राज्य सरकार को क्षेत्रीय सहयोग के लिए गंगा के मैदानी इलाकों में आने वाले राज्यों के साथ मिल कर काम करना होगा।
एक अनुमान के मुताबिक खेती योग्य भूमि का 60 प्रतिशत भूमि कटाव, जलभराव और लवणता से ग्रस्त है. कल्पना कीजिए जब हमारे पास खेती की जमीन नहीं होगी, हमारे गांव भी प्रदूषित हो चुके होंगे, फिर हमारी पूरी सभ्यता किस तरफ जाएगी?