scriptकला आयोजनों के संग जरूरी है उनकी व्याख्या | It is necessary to interpret them with art events | Patrika News
ओपिनियन

कला आयोजनों के संग जरूरी है उनकी व्याख्या

बहरहाल, कलाओं पर लिखे की सार्थकता तभी है, जब समय संदर्भों के साथ कला और कलाकार की विधा विशेष के अंतर्निहित को छुआ जाए। दृश्य-श्रव्य कला में दिख रहे, सुने जा रहे संसार के परे भी भाव संवेदनाओं का आकाश बनता है।

May 22, 2022 / 08:28 pm

Patrika Desk

कला आयोजनों के संग जरूरी है उनकी व्याख्या

कला आयोजनों के संग जरूरी है उनकी व्याख्या


राजेश कुमार व्यास
कला समीक्षक

संगीत, नृत्य, नाट्य और चित्रकला आदि कलाएं संस्कृति की जीवंतता हैं। इनकी प्रस्तुतियों पर हमारे यहां सूचनात्मक दृष्टि तो है, पर विचार प्राय: गौण हैं। कलाएं मन को रंजित ही नहीं करतीं, उनमें रचते-बसते ही हम अपने होने की तलाश कर सकते हैं। पर, कला प्रस्तुतियों का जितना महत्त्व है, उतना ही उन पर सूक्ष्म दृष्टि से लिखे, व्याख्यायित किए जाने का भी है। यह लिखा खाली सूचनाप्रद, समाचार रूप में ही होगा, तो उसकी खास सार्थकता नहीं है। सोचिए, क्योंकर हम फिर कलाओं के निकट जाने के लिए प्रेरित होंगे? पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने कभी कहा था, ‘हमें तानसेन नहीं कानसेन बनाने हैं।Ó यह उन्होंने इसीलिए कहा था कि तानसेन जैसे गुणी संगीतकारों को सुनने के लिए ध्यान से उन्हें सुनने वालों की भी जरूरत है।
आनंद कुमार स्वामी ने पहले पहल जब श्री कृष्ण के बांसुरी बजाते बांकपन स्वरूप, शंख, चक्र, गदा, हस्त के विष्णु, शिव के नटराज स्वरूप को देखा तो चकित रह गए। मानव स्वरूप से इतर इन विग्रहों के निहितार्थ में वह वेद, पुराणों में लिखे, व्याख्याओं पर गए। भारतीय कलाओं पर उनकी सूक्ष्म आलोचना दृष्टि से ही कला-कृतियों को बड़े स्तर पर हम संजो सके, सहेज पाए।
पंडित रविशंकर की लोकप्रियता शास्त्रीय रागों के मधुर वादन भर से ही नहीं हुई। अपनी आत्मकथा में उन्होंने स्वीकार किया है, ‘दूसरे देशों में मेरे सितार को आरम्भ में स्वीकार ही नहीं किया गया। पर, जब मैंने अपनी रागों, उनकी मधुरता के अन्र्तनिहित की व्याख्या, समीक्षाओं का सहारा लिया तो तेजी से मुझे और मेरे संगीत को प्रसिद्धि मिली।Ó पंडित शिव कुमार शर्मा ने संतूर की अपनी पहली प्रस्तुति जब दी, तो समीक्षकों ने संतूर को शास्त्रीय वाद्य यंत्र मानने से ही इंकार कर दिया। उन्होंने समीक्षाओं को अपने लिए चुनौती रूप में लिया और संतूर के पर्याय बन गए। माखन लाल चतुर्वेदी के लिखे में शब्दों की पुनरावृत्ति होती थी। हरिशंकर परसाई ने एक दफा इस पर करारा व्यंग्य किया। चतुर्वेदी ने बुरा नहीं माना। अपने अध्ययन कक्ष की टेबल के पास इस लिखे को टांग लिया। जब कभी वह कुछ नया लिखते, परसाई के लिखे को देखते और इस तरह से उनके लिखे में शब्दों का पुनरावृत्ति दोष समाप्त हो गया। संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्र आदि सभी कलाओं के प्रति समाज में रसिकता भी तभी जगती है, जब सूक्ष्म दृष्टि से उनकी व्याख्या हो। मुश्किल यह है कि गूगल ने एकरसता का इस कदर प्रसार किया है कि पंडित शिव कुुमार शर्मा जैसे संगीतकार के अवसान पर भी उनके सन्तूर वादन के अन्तर्निहित में जाने की बजाय ज्यातादर वही प्रकाशित—प्रसारित हुआ जो गूगल ने बताया था।
बहरहाल, कलाओं पर लिखे की सार्थकता तभी है, जब समय संदर्भों के साथ कला और कलाकार की विधा विशेष के अंतर्निहित को छुआ जाए। दृश्य-श्रव्य कला में दिख रहे, सुने जा रहे संसार के परे भी भाव संवेदनाओं का आकाश बनता है। यह आकाश कलाकृति में रमते बसते ही सिरजा जा सकता है। समीक्षा को हमारे यहां रचना के समानान्तर और बहुत से स्तरों पर तो रचना से भी बड़ा इसीलिए माना गया है, कि वह कलाओं से हमें प्रेम करना सिखाती है। कलाओं के समग्र परिवेश को समझने की प्रक्रिया से भी आगे यह जीवन से जुड़े व्यापक और उदात्त दृष्टिकोण से भी हमें जोड़ती हैं। इससे ही तो बनता है, कलाओं का रसिक संसार।

Home / Prime / Opinion / कला आयोजनों के संग जरूरी है उनकी व्याख्या

loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो