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जय भक्तों की

Published: Jun 28, 2016 11:28:00 pm

समकालीन भारतीय राजनीति का एक ‘विचित्र किंतु सत्य है। यहां हरेक नेता
के अपने भक्त हैं जिन्हें चालू मुहावरे में ‘चमचा’ कहा जाता है और ये अपने
‘आका’ का ‘बाजा’ बजाते रहते हैं

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भगवान कहते हैं- ‘हम भक्तों के, भक्त हमारे।’ और प्रभु सही कहते हैं। जब भी आदमी किसी पीड़ा-परेशानी में होता है तो वह अपने ईश्वर को पुकारता है और ईश्वर उसकी सहायता भी करते हैं। यह भी सही है कि भक्त ही भगवान को पुजाते हैं। लेकिन आध्यात्मिक जीवन के इन सत्यों को हमारे राजनीतिक छुटभैए राजनीति के मैदान में भी प्रयोग करने से नहीं हिचकिचाते। वैसे आजकल देश में कई प्रकार के भक्त (समर्थक) पाए जाते हैं।

प्रथम, जो मुद्दों के आधार पर समर्थन करते हैं। दूसरे, विचारधारा को सर्वोपरि मानते हैं। तीसरे, तर्क को समर्थन का आधार बनाते हैं। चौथे, अपने काम के आधार पर सलाम बजाते हैं। लेकिन सबसे जोरदार होते हैं पांचवें, इन्हें न तर्क की परवाह है न विचारधारा में यकीन रखते हैं। न इन्हें काम से लेना-देना। यह अंधभक्त तो सिर्फ नाम पर यकीन रखते हैं।

जैसे इन दिनों भक्तों की बाढ़ आई हुई है। एक भक्त अपने ‘स्वामी’ को विवेकानंद का अवतार बताता है और विवेकानंद के बचपन के नाम से लेकर उनकी शिक्षा-दीक्षा तक को ऐसे जोड़ रहे हैं जैसे विवेकानंद ने ही दूसरा ‘अवतार’ ले लिया है। एक भक्त अपने राजनीतिक आका को सीधे ‘पटेल’ बता रहे हैं। भारतीय राजनीति में ‘पटेल’ को लौहपुरुष कहा जाता था। ऐसा नहीं कि इससे पहले वाले भक्तों ने अपने नेता को लौहपुरुष ना कहा हो। लेकिन तब के ‘लौहपुरुष’ आज के ‘मोमपुरुष’ बन चुके हैं। इधर भक्त ने अपने नेता को साक्षात् चाणक्य का रूप बता दिया।

इधर नेताजी स्वयं पशोपेश में है कि वे अपने आपको क्या जताएं। कभी वे अपने को ‘गांधी’ से जोड़ते हैं तो कभी यह सिद्ध करने में लग जाते हैं कि वे पंडित नेहरू की तरह विश्व के लोकप्रिय नेता बन चुके हैं। कई बार उनके मुख से नेपोलियन की सूक्तियां झरने लगती हैं तो कभी दिल की बातें करते-करते वे हकीम लुकमान बन जाते हैं। जब मन करता है तब पतलून और थ्री-पीस पर हैट लगाकर ‘हीरो सलमान’ का रूप धर लेते हैं।

अब आप यह न समझना कि हम किसी खास नेता का जिक्र कर रहे हैं। जी नहीं। कदापि नहीं। यह तो समकालीन भारतीय राजनीति का एक ‘विचित्र किंतु सत्य’ है। यहां हरेक नेता के अपने भक्त हैं जिन्हें चालू मुहावरे में ‘चमचा’ कहा जाता है और ये चमचे सामूहिक बिरुदावली गाकर अपने ‘आका’ का ‘बाजा’ बजाते रहते हैं। इन चमचों को कतई अहसास नहीं कि इस देश की आम जनता इतनी ‘मूर्ख’ नहीं है जितना ये लोग समझते हैं।

चमचागिरी की चालीसा वाचन का यह सिलसिला हरेक दल में है जरूरी है कि वह दल सत्ता में होना चाहिए क्योंकि जो ‘राजनीतिक भगवान’ स्वयं कुर्सी पर नहीं है वह किसी का क्या ‘भला’ कर सकता है। अब भक्तों को चरणचम्पी करने से तो हम रोक नहीं सकते अलबत्ता इतना जरूर कह सकते हैं- अरे भक्तों। तुम्हारी इस छिछोरी हरकतों से बेचारे ‘आकाजी’ को जरूर नीचा देखना पड़ सकता है। क्योंकि राजनीति में सफलता और असफलता रेल की पटरी की तरह समान्तर चलती है। भाग्य की गाड़ी कब पटरी बदल ले कहा नहीं जा सकता। राही
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