अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में जिन्ना को ले कर जारी विवाद को इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। वास्तव में, यह विवाद एएमयू में जिन्ना की तस्वीर को लेकर नहीं है। इसका लक्ष्य हिंदू राष्ट्रवाद को ले कर चलने वाले अनेक संगठनों द्वारा सांप्रदायिक तनाव पैदा करना है। गुडग़ांव में, जहां मैं रहता हूं, नमाज पढऩे की जगह को लेकर लंबे समय से तनाव बना हुआ है। गाय, नमाज, ऐतिहासिक स्मारक, जिन्ना की तस्वीर – इनका ताल्लुक बहानों की एक शृंखला से है, भारत की भलाई से नहीं। दूसरी बात, मान लें कि जिन्ना विभाजन के लिए जिम्मेदार थे। लेकिन तथ्य यह है कि दो देश अस्तित्व में आए। द्विराष्ट्र सिद्धांत की आलोचना की जा सकती है – जैसे एक राष्ट्र या त्रिराष्ट्र सिद्धांत की, पर इस वैचारिकी का संदेश यह नहीं होना चाहिए कि पाकिस्तान का अस्तित्व अवैध है। ये परस्पर-विरोधी दावे पारस्परिक असुरक्षा के चक्र को मजबूत बनाते हैं।
यहीं जिन्ना सामने आते हैं। अपने-अपने ढंग से आडवाणी और जसवंत सिंह, दोनों ने एक सत्य का साक्षात्कार किया था कि दक्षिण एशिया में शांति स्थापित होनी है, तो पाकिस्तान की वैधता को नकारा नहीं जा सकता। अत: पहली जरूरत यह है कि दोनों देश एक-दूसरे के अस्तित्व के तथ्य को स्वीकारें। इस संदर्भ में जिन्ना को बतौर खलनायक नहीं, बल्कि पाकिस्तान के संस्थापक के रूप में देखना उचित होगा। यानी जिन्ना को बार-बार निशाना बनाने का अब कोई मतलब नहीं है, जैसे इसका कोई मतलब नहीं है कि कोई पाकिस्तानी, गांधी या किसी और से नफरत करे, क्योंकि उन्होंने विभाजन का विरोध किया था और पाकिस्तान के बनने में बाधा पैदा की थी।
इसी अर्थ में जिन्ना को स्वीकारने का आडवाणी और जसवंत सिंह का आग्रह भविष्य का मार्ग प्रशस्त करने का आग्रह था, यद्यपि यह बेअसर रहा। वे जो कहना चाहते थे, वह यह है – क्या हम बहस की शर्तों को बदल सकते हैं? जिन्ना की तस्वीर यहां या वहां टंगी हो, इस पर बहस हो सकती है। लेकिन जो लोग जिन्ना के बहाने कुछ और करना चाहते हैं, वास्तव में उनकी इच्छा यह है कि यह क्षेत्र कभी भी द्वेष के विषाक्त चक्र से मुक्ति न पा सके। अगर आप ईमानदारी से सोचते हैं कि विभाजन एक भूल थी, तो व्यक्तिगत आजादी की ऐसी स्थितियां पैदा कीजिए, जिनमें धार्मिक पहचान के आधार पर किसी को निशाना न बनाया जाए। इसके विपरीत, विभाजन की ‘भूल’ का इस्तेमाल विभाजन के तर्क को ही आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। जिन्ना इस आग का ईंधन मात्र हैं।
इतिहास से संबंधित बहसें दो पातकों से ग्रस्त हैं। पहला, समुदाय विशेष की नजर से देखना, जिससे द्विराष्ट्र सिद्धांत मजबूत होता है : ‘मैं हिंदू खलनायकों को खोजता हूं, तुम मुस्लिम खलनायकों की खोज करो।’ सच यह है कि विभाजन और उसके साथ हुई बर्बरताएं हो ही नहीं सकती थीं, यदि हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों ने हिंसा से बचने की कोशिश की होती। जिन्ना इस हिंसा के लिए जिम्मेदार थे, क्योंकि उन्होंने संवैधानिक रास्ता छोड़ दिया था, पर इसके लिए हिंदू महासभा जैसे संगठन भी जिम्मेदार थे। दूसरा, विभाजन क्यों हुआ, यह तय करने के आसान सूत्रों का लोभ। यह लोभ हमें छोडऩा होगा। कई प्रमुख घटनाओं की तरह विभाजन भी बहुत-से लोगों की भूलों-कुनिर्णयों की उपज था। कभी-कभी स्वर्ग का रास्ता भी बुरे इरादों से पटा होता है। इतिहास की गहरी धाराओं के सामने आखिर कौन टिक पाया। वे सभी हार गए, जो इतिहास जीतना चाहते थे।
इतिहास से संबंधित बहसें दो पातकों से ग्रस्त हैं। पहला, समुदाय विशेष की नजर से देखना, जिससे द्विराष्ट्र सिद्धांत मजबूत होता है : ‘मैं हिंदू खलनायकों को खोजता हूं, तुम मुस्लिम खलनायकों की खोज करो।’ सच यह है कि विभाजन और उसके साथ हुई बर्बरताएं हो ही नहीं सकती थीं, यदि हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों ने हिंसा से बचने की कोशिश की होती। जिन्ना इस हिंसा के लिए जिम्मेदार थे, क्योंकि उन्होंने संवैधानिक रास्ता छोड़ दिया था, पर इसके लिए हिंदू महासभा जैसे संगठन भी जिम्मेदार थे। दूसरा, विभाजन क्यों हुआ, यह तय करने के आसान सूत्रों का लोभ। यह लोभ हमें छोडऩा होगा। कई प्रमुख घटनाओं की तरह विभाजन भी बहुत-से लोगों की भूलों-कुनिर्णयों की उपज था। कभी-कभी स्वर्ग का रास्ता भी बुरे इरादों से पटा होता है। इतिहास की गहरी धाराओं के सामने आखिर कौन टिक पाया। वे सभी हार गए, जो इतिहास जीतना चाहते थे।
यदि हम सच्ची उत्तर-औपनिवेशिक शक्ति बनना चाहते हैं, तो हमें 1940 के दशक के नायक-खलनायक के नैतिकता वाले खेल से बाहर आना होगा। भारत और पाकिस्तान के सामने सवाल यह है कि वे किस तरह का समाज बनना चाहते हैं, अपने नागरिकों को कितनी स्वतंत्रता और समानता दे सकते हैं। पाकिस्तान ने जो जवाब दिया है, वह निराश करने वाला है। जिन्ना की एक विस्मृत तस्वीर के बहाने हिंदू राष्ट्रवादी हमें उसी राह पर ले जाना चाहते हैं।