समकालीन हिंदी पत्रकारिता को इस पर भी आत्मपरीक्षण करना चाहिए कि वह भारतीय पत्रकारिता की आदि प्रतिज्ञा की कसौटी पर खरा उतर रही है? क्या वह किसी से सचमुच प्रभावित नहीं होती? आज की पत्रकारिता को इस पर भी आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या उसका मूल लक्ष्य देशहित है? पहले के अखबारों के लिए देश हित सबसे ऊपर होता था। वे पाठकों को बनाते थे। जन माध्यम का उद्देश्य ही पाठकों और दर्शकों को बनाना, उनकी रुचियों का परिष्कार करना रहा है। हिन्दी के पाठकों में वह विवेक अपेक्षित है कि जिसके बल पर वे यह निर्णय कर सकें कौन पत्र उन्हें नई अभिज्ञता दे सकेगा, रुचि का परिमार्जन कर सकेगा और विवेक को संवर्धित कर सकेगा। वैज्ञानिक और शैक्षणिक प्रगति का लाभ पाठक व दर्शक उठा सकें और भूमंडलीकरण के सांघातिक प्रभावों से अपने को बचा सकें।
भूमंडलीकरण के दबाव ने मीडिया का स्वरूप और चरित्र बदल डाला है। उदारीकरण के फलस्वरूप उभरी नई विश्व अर्थव्यवस्था में हाशिए के समाज के लिए मीडिया में बहुत कम जगह बची या नहीं बची है। बाजारवाद के इस दौर में सर्वहारा की आवाज सुनने वाले बहुत कम जन माध्यम हैं। विचारणीय यह भी है कि आज तेज गति से सूचनाओं का आदान-प्रदान हो रहा है। पूरे विश्व का सूचना बाजार गर्म है, बल्कि वह मनोरंजन बाजार की शक्ल में तब्दील हो चुका है और इसमें भारतीय पत्रकारिता और पाठक आत्मविस्मृत हैं। पाठक या दर्शक इसमें अपनी सुध-बुध खोता जा रहा है। केबल टीवी का जाल फैलता जा रहा है।
विदेशी उपग्रह चैनलों के आने से भारत के सांस्कृतिक जीवन में साम्राज्यवादी संस्कृति का दबाव भी बढ़ा है। क्या इससे भारत के वैविध्यपूर्ण सांस्कृतिक गौरव और पहचान के विकृत होने का अंदेशा नहीं है? यह प्रश्न भी आज कम अहम नहीं है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में जनसंचार के प्रोफेसर हैं)