सर्वोच्च न्यायालय की बात सही है कि जज झूठ बोलेंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन कोई भी जज हमेशा एकदम सही आचरण करेगा, यह एक आदर्श स्थिति तो है लेकिन वास्तविक नहीं। यदि होती तो स्वयं भारत के प्रधान न्यायाधीशों तक को यह स्वीकार न करना पड़ता कि निचली ही नहीं, ऊंची अदालतों में भी भ्रष्टाचार है। भारत के प्रधान न्यायाधीश का पदभार ग्रहण करने से पहले 28 जून, 2013 को अंग्रेजी दैनिक ‘द हिन्दू’ को दिए एक साक्षात्कार में जस्टिस पी. सदाशिवम ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ऊंची अदालतों में भी भ्रष्टाचार है और कुछ जजों ने निष्पक्ष और तटस्थ ढंग से न्याय करने की अपनी शपथ तोड़ी है।
उनसे पहले 2011 में कानून दिवस पर देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एस.एच. कपाडिय़ा ने कहा था कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता से भी अधिक महत्वपूर्ण मूल्य उसकी सत्यनिष्ठा है और न्यायपालिका को स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है। उच्च न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार हो सकता है, देश का संविधान ऐसी स्थिति को अकल्पनीय नहीं मानता और उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के जजों पर भ्रष्ट आचरण के आरोप में महाभियोग चलाकर हटाने की व्यवस्था देता है। और फिर, भ्रष्टाचार सिर्फ पैसों के लेन-देन तक सीमित नहीं होता।
जनवरी में सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम जजों ने मजबूर होकर संवाददाता सम्मलेन बुलाया था और न्यायालय के निर्णयों, जिनमें प्रधान न्यायाधीश द्वारा स्थापित परंपराओं को ताक पर रखकर मनमाने ढंग से खंडपीठ गठित करने का मुद्दा भी था, पर सरकार का प्रभाव होने की आशंका प्रकट की थी। गुरुवार को जज लोया की हत्या की जांच कराने से इंकार करके सर्वोच्च न्यायालय ने जनता की आशंकाओं को दूर करने के बजाय पुष्ट ही किया है। चूंकि न्याय किया ही नहीं जाना चाहिए, किया जाता हुआ दिखना भी चाहिए, उनका यह तर्क गले से नहीं उतरता कि जज लोया की मृत्यु को ‘प्राकृतिक’ बताने वाले उनके चार सहकर्मी जजों की बात पर संदेह इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि वे न्यायिक अधिकारी हैं। क्या यह संभव नहीं कि ये चार न्यायिक अधिकारी अन्य मामलों में ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ न्याय करते आए हों, लेकिन इस एक मामले में उन्होंने ऐसा नहीं किया हो?
सही रास्ते को जानते हुए भी क्या मनुष्य हमेशा उस पर चल पाता है? और, क्या हर रोज हमारे सामने किस्म-किस्म की नैतिक दुविधाएं खड़ी नहीं होती हैं? युधिष्ठिर की प्रतिज्ञा थी कि वह कभी झूठ नहीं बोलेंगे और उन्हें इसके लिए जाना भी जाता था। इसीलिए जब द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र अश्वत्थामा के मारे जाने की खबर सुनी, तो उन्होंने कहा यदि युधिष्ठिर इसकी पुष्टि कर दें तो वे मान लेंगे। युधिष्ठिर असत्य नहीं बोलना चाहते थे लेकिन युद्ध जीतने के लिए यह बेहद जरूरी था। काफी देर तक इस नैतिक दुविधा का सामना करने के बाद जिस युधिष्ठिर ने उस क्षण तक कभी झूठ नहीं बोला था, वही युधिष्ठिर झूठ बोलने के लिए तैयार हो गए। बालि को कायर की भांति छुपकर मारने के अनैतिक कृत्य के लिए भारतीय चिंतन परंपरा राम को कभी क्षमा नहीं कर पाई। जनमत को ठुकरा कर राम का वनवास के लिए जाना और एक धोबी के लांछन लगाने पर जनमत का आदर करने के नाम पर गर्भवती सीता का त्याग कर देना, संस्कृत काव्यग्रंथ और नाटक इसकी आलोचना से भरे पड़े हैं। कहने का आशय यह है कि यह दावा करना कि फलां व्यक्ति न्यायिक अधिकारी है, इसलिए उसकी बात पर संदेह नहीं किया जा सकता, स्वयं में एक संदेहास्पद दावा है।