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न्याय हो और होता दिखे भी

Published: Feb 01, 2016 11:47:00 pm

अदालती कार्यवाहियों की रिकॉर्डिंग शुरू करने की पुरानी मांग केन्द्र
सरकार ने फिर सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख उठाई है। देश की शीर्ष अदालत इसे
अव्यावहारिक बताते हुए पहले खारिज कर चुकी है

Opinion news

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अदालती कार्यवाहियों की रिकॉर्डिंग शुरू करने की पुरानी मांग केन्द्र सरकार ने फिर सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख उठाई है। देश की शीर्ष अदालत इसे अव्यावहारिक बताते हुए पहले खारिज कर चुकी है। ऐसे माहौल में जब देश में गाहे-बगाहे न्यायिक प्रक्रिया और न्यायाधीशों के कार्य-व्यवहार व आचरण पर सवाल उठने लगे हैं, तो रिकॉर्डिंग से गवाहों के बयान देकर मुकरने व जजों के तारीख पर तारीख देने पर भी प्रवृत्ति पर कितना लग सकगा अंकुश? इस व्यवस्था का क्यों किया जा रहा है समर्थन और विरोध के पीछे क्या हैं दलीलें? विशेषज्ञों की राय आज के स्पॉट लाइट में…

शिव कुमार शर्मा पूर्व न्यायाधीश, राज. उच्च न्यायालय
ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच अहम का टकराव चल रहा है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि दोनों ही संस्थाएं जनता के हित में काम करने का इरादा रखती है। दोनों ही देश की पवित्र संस्थाएं हैं। जनता को कोर्ट के कामकाज के तरीके पर अविश्वास जैसी कोई बात भी नहीं है। ऐसे में यह बात समझ में नहीं आती कि आखिर क्यों सर्वोच्च न्यायालय को अदालती कार्यवाहियों की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग करवाने से परहेज है। कई बार इस तरह के सुझाव दिए गए हैं लेकिन इन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।

इसलिए जरूरी लगता है
कई बार ऐसा देखने में आता है कि कोर्ट में अनर्गल टिप्पणियां की जाती हैं। कभी कोई वकील ऐसा करता है तो कभी न्यायाधीश ऐसा कर देता है। अनेक बार तो समझ में नहीं आता कि आखिर मुकदमे के निपटारे में देरी क्यों की जा रही है? कौन इसके लिए जिम्मेदार है, जज या वकील? यह जानने का अधिकार कम से कम उसे तो है ही, जिसने न्याय की आस में मुकदमा किया है। उसे पता तो चलना चाहिए कि उसके वकील ने पैसा लेने के बाद उसके मामले को किस तरह से जज के सामने पेश किया? बहस में क्या-क्या तथ्य रखे।

इसके अलावा न्यायाधीश का व्यवहार कोर्ट में कैसा रहा है, यह भी तो आम लोगों के सामने आना ही चाहिए। जब खुद न्यायालय कामकाज में पारदर्शिता का पक्षधर रहा है, तो खुद के कामकाज के मामले में उसे परहेरज क्यों होना चाहिए? पिछले दिनों एक मामले में कांग्रेस के कार्यकाल में मंत्री रहे नेता वकील थे और दो वरिष्ठ जज आपस में भिड़ गए। एक जज ने मामले में नोटिस जारी कर दिया और दूसरे ने उसे खारिज कर दिया। केवल इसी वजह से मामले को अन्य बेंच को सुनवाई के लिए भेजना पड़ा। जनता के सामने न्याय के मंदिर में होने वाली कार्रवाई का सच सामने लाने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। कुछ वैधानिक प्रावधान हैं, जिनमें मुकदमों की गोपनीय सुनवाई (इन कैमरा हियरिंग) होती है। ऐसे मुकदमों को छोड़कर अन्य की तो रिकॉर्डिंग करवाई जा सकती है।

गोपनीयता ठीक नहीं
जब संसदीय कार्यवाही का प्रसारण किया जा सकता है तो न्यायालय में भी इन कैमरा हियरिंग वाले मामलों को छोड़कर अन्य मुकदमों की सुनवाई की रिकॉर्डिंग की जा सकती है। यही नहीं न्यायालय के पास अधिकार है कि वह इन कैमरा हियरिंग वाले मुकदमों की रिपोर्टिंग को रोक सकता है। जब इस तरह से रोकने का अधिकार विशेष मुकदमों के मामलों में अदालत के पास है, तो किस किस्म की हिचकिचाहट है?

यदि मुकदमों की कार्यवाही की रिकॉर्डिंग है तो इसका एक बड़ा लाभ तो यही है कि फैसला लिखाते समय न्यायाधीश यदि मुकदमे से संबंधित तथ्य कुछ भूल भी जाए तो रिकॉर्डिंग को देखा जा सकता है। इसके अलावा यदि वादी या परिवादी मुकदमे से संबंधित जानकारी चाहता है, तो उसे कुछ शुल्क लेकर रिकॉडिंग उपलब्ध कराई जा सकती है। इससे पारदर्शिता रहेगी और आम जनता का विश्वास न्यायपालिका पर और अधिक मजबूत ही होगा।

1911 ऑल इंग्लैंड रिपोर्टर 30 के अनुसार बैन्थम ने तो यह भी कहा है, ‘गोपनीयता के अंधकार में कई स्वार्थी हित और बुराइयां प्रवेश कर लेती है। इस परिस्थिति में केवल प्रचार ही ऐसा साधन है जो अन्याय को नियंत्रित कर सकता है। जहां प्रचार नहीं है, वहां न्याय नहीं है। प्रचार तो न्याय की आत्मा है। यही हकीकत भी है। सुप्रीम कोर्ट को इस ओर ध्यान देना चाहिए कि यदि हर मामले की सुनवाई में गोपनीयता बरती जाती रही तो कुछ बुराइयां भी उत्पन्न हो ही सकती हैं। यदि जज और वकीलों की जानकारी में यह रहेगा कि उनके कामकाज की रिकॉर्डिंग हो रही है और उसे प्रसारित भी किया जा सकता है, तो निश्चित मानिए कि अनावश्यक टिप्पणियों से बचा सकेगा। यही नहीं अदालती कामकाज में समय की बचत होगी और जो मुकदमों के अंबार लगे हैं, उनमें तो निश्चित रूप से कमी आने की संभावना है।

फायदे-नुकसान दोनों हैं इसमें
उज्ज्वल निकम वरिष्ठ अधिवक्ता
अदालतों की कार्यवाही की रिकॉर्डिंग कराने के फायदे व नुकसान दोनों है। गौर से देखें तो इस काम में फायदे ज्यादा हैं। हम अक्सर देखते-सुनते हैं कि अदालतों में कई बार ऐसी अप्रासंगिक टिप्पणी कर दी जाती है जिसका कोई मतलब नहीं होता। यह टिप्पणी जजोंं की तरफ से भी हो सकती है और वकीलों की तरफ से भी। मुझे लगता है कि सबसे बड़ा फायदा तो यही होने वाला है कि अदालतों में अनावश्यक टीका-टिप्पणियां होनी बंद हो जाएगी।

छवि की ज्यादा चिंता
संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही का प्रसारण होता है तो कई बार हम देखते हैं कि कई बार ऐसी अप्रिय स्थितियां पैदा हो जाती है जिन्हें देखकर आम जनता के मन में जनप्रतिनिधियों की छवि अच्छी नहीं बनती। अदालतों की कार्यवाही की रिकॉर्डिंग होने पर ऐसे ही हालात का सामना करना पड़ सकता है। हां, एक बात जरूर है कि रिकॉर्डिंग होने से साक्ष्य एक बार में ही रिकॉर्ड पर लिए जा सकते हैं। अभी तो पहले गवाही दी जाती है और जज उसको सुनकर लिखाते हैं। नई व्यवस्था होने पर कानूनी प्रावधानों में भी संशोधन जरूरी होगा। विरोधियों के पास बड़ी दलील यह हो सकती है कि हमारे देश में यह अभी व्यावहारिक नहीं है। क्योंकि इसमें काफी खर्चा आएगा। यह काम ज्यादा खर्चीला होगा यह मुझे नहीं लगता। कोई भी काम जो पहली बार किया जाता है उसमें स्वाभाविक रूप से बजट प्रावधान करने की जरूरत होगी। लेकिन बाद में यह सब सिस्टम का हिस्सा बन जाएगा।

खर्च की बात ठीक नहीं
आज तो जहां स्कूलों, बाजारों व मॉल्स तक में कैमरे लग चुके हैं वहीं अदालती कार्यवाही में वीडियो या ऑडियो रिकॉर्डिंग में खर्च की बात हास्यास्पद है। वीडियो रिकॉर्डिंग करने से कोर्ट के माहौल ज्यादा गरिमामय और सुव्यवस्थित होगा ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।

संसद से न्यायपालिका की तुलना ठीक नहीं
मनन मिश्रा चेयरमेन, बीसीआई
एक बात स्पष्ट कर दूं कि कई बार सरकार की ओर से अदालतों की कार्यवाही की रिकॉर्डिंग किए जाने और उसे आम जनता के लिए प्रसारित किए जाने के सुझाव आते रहे हैं और ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट उस पर अपनी राय नकारात्मकता में देता है। हकीकत यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपनी कोई राय दी ही नहीं है। उसने कभी भी कार्यवाही की रिकॉर्डिंग और उसके प्रसारण को लेकर ना नहीं किया है।

रहती है दुरुपयोग की आशंका
अकसर यह तर्क दिया जाता है कि जब लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही की रिकॉर्डिंग हो सकती है और उनका प्रसारण हो सकता है तो न्यायालय की कार्यवाही की रिकॉर्डिंग में क्या परेशानी हो सकती है? इस संदर्भ में यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि लोकसभा, राज्यसभा और न्यायापालिका अलग-अलग संस्थाएं हैं और उनके कामकाज की अपनी शुचिता है। इन्हें कामकाज के आधार पर समान समझना ठीक नहीं है। यह बहुत बड़ी वजह है जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट शायद मुकदमों की कार्यवाही की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग की सिफारिश पर हिचकिचाता है। उसे आशंका रहती है कि जब इस तरह की रिकॉर्डिंग होगी तो उसका दुरुपयोग हो सकता है। इसके बावजूद निजी तौर पर मैं जरूर मानता हूं कि एक दायरे में रहकर रिकॉर्डिंग की अनुमति दी जा सकती है। हालांकि यह दायरा इन कैमरा हियरिंग के माध्यम से तय किया हुआ है, फिर भी कार्यवाही की रिकॉर्डिंग के दुरुपयोग की गुंजाइश तो रहती है।

देश में मीडिया अदालत की कार्यवाही का भरपूर कवरेज करता है। कई बार तो ऐसा लगता है कि संसद या अन्य संस्थाओं के कवरेज के मुकाबले न्यायालय की कार्यवाही का कवरेज अधिक देखने को मिलता है। कभी मुकदमों की सुनवाई के दौरान न्यायाधीश कोई टिप्पणी कर देते हैं। लेकिन, इन टिप्पणियों का असर फैसलों में देखने को नहीं मिलता। फिर भी मीडिया इन टिप्पणियों को ऐसे छापता है, जैसे वो फैसले पर असर डाल रही हों। उदाहरण के तौर पर शिक्षकों से संबंधित कोई मामला न्यायालय में है और न्यायाधीश ने यह टिप्पणी कर दी कि इन दिनों शिक्षक पढ़ाई के मुकाबले मुकदमेबाजी में अधिक उलझे दिखाई दे रहे हैं तो मीडिया इसे चटखारेदार खबर के रूप में प्रकाशित करता है। यह बात और है इस तरह की टिप्पणी का मुकदमे के फैसले से कोई लेना-देना नहीं होता।

रिक्त पड़े हैं जजों के पद
अब यह बात होगी कि न्यायाधीश इस तरह की टिप्पणी करते क्यों हैं? तो, यह बात भी समझनी चाहिए कि न्यायाधीश भी मानव ही हैं। लेकिन, उन्होंने कभी-कभार कोई टिप्पणी कर भी दी तो इससे कोई परेशानी का पहाड़ नहीं टूट पड़ता। अलबत्ता, मैं इससे भी इनकार नहीं करूंगा कि कई बार कुछ अनर्गल टिप्पणियां सुनने को मिलती हैं। कुछ उच्च न्यायालयों में यदि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की नजीर कोई वकील देता है, तो कई बार कोई जज यह कह देता है ‘ तो आप सुप्रीम कोर्ट में ही फैसला करवा लें।


ऐसा भी सुनने में आता है कि न्यायाधीश समय पर नहीं आते, पूरे समय कोर्ट में नहीं बैठते और वकील तारीखें बदलवाते रहते हैं। लेकिन, ऐसा अपवाद के रूप में ही होता है। जहां तक अदालतों में मुकदमों के अंबार और फैसले नहीं होने की बात है तो इसके लिए न्यायाधीशों का व्यवहार जिम्मेदार नहीं है। इसके लिए न्यायालयों में लंबित पड़ी रिक्तियां हैं। उच्च न्यायालयों में 450 से अधिक जजों के पद रिक्त हैं। छोटी अदालतों में भी ऐसा ही हाल है। इस मामले में तत्परता दिखाई जानी चाहिए। रिक्त पद भरे जाएं तो मुकदमों के अंबार भी कम हो सकेंगे।

पक्ष में ये तर्क
1. पारदर्शिता रहेगी : रिकॉर्डिंग पारदर्शिता को बढ़ावा देती है। इससे गवाहों को बयानों से मुकरने से हतोत्साहित करती हैं। गवाहों को दोबारा दर्ज करने पर सुनवाई में देरी होती है, जिससे लंबित मामलों की सूची बढ़ती जाती है।
2. कार्यवाही पर अंगुली नहीं उठेगी : अदालतों में कई बार जजों अथवा वकीलों की तरफ से अप्रासंगिक बातें भी बहस में आ जाती है। रिकॉर्डिंग होने के बाद अदालतों की कार्यवाही पर अंगुली नहीं उठ पाएगी।
3. लगेगी लगाम : वकीलों और जजों के अनुपयुक्ततौर-तरीकों जैसे केस को बार-बार मुल्तवी करना, अपनी दलीलों से पलटना इत्यादि पर लगाम लग सकेगी।

यह था प्रस्ताव
विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायाधीश (से.नि.) ए.पी. शाह ने प्रायोगिक तौर पर कुछ जिला अदालतों में रिकॉर्डिंग का प्रस्ताव दिया था।

पहले भी किया खारिज
शीर्ष अदालत ने न्यायिक कार्यवाही की रिकॉर्डिंग के लिए मंजूरी मांगने वाली याचिकाओं को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि देश में अदालती व्यवस्था इस स्तर तक नहीं पहुंची है।

विपक्ष में ये दलील
1. देश भर की अदालतों की कार्यवाही की रिकॉर्डिंग कराने में काफी धन की जरूरत पड़ेगी।
2. अदालती कार्यवाही की रिकॉर्डिंग होने पर इनके लाइव प्रसारण की मांग भी उठेगी। इसके लिए अदालत परिसर में मीडियाकर्मियों के लिए अलग से जगह की व्यवस्था करनी होगी।

अन्य देशों में यह व्यवस्था
कई देशों में अदालती कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग सामान्य है। अमरीका व इंग्लैंड में यह कार्यवाही उतनी ही पारदर्शी है जितनी कि वहां की संसद की। इंगलैंड में नए सुप्रीम कोर्ट में कार्यवाही प्रसारित करने की सुविधा है। कनाडा में भी ऐसी सुविधा है। अमरीका का कानून अदालती कार्यवाहियों की मीडिया कवरेज की अनुमति देता है। ब्राजील में न्यायपालिका के लिए अलग चैनल है।
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